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राजा के कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व (२१५१६२), अग्नि० (२२५।२५), आदिपर्व (४६।११), सभा० (१८।२४), विराटपर्व (1८।२४, शान्ति (७७।१८) आदि । विष्णुधर्मोत्तर को उद्धृत करते हुए राजनीतिप्रकाश (पृ० १३०-१३१) ने लिखा है कि राजा को चाहिए कि वह पतिव्रता स्त्रियों का सम्मान एवं रक्षा करे। इस ग्रन्थ ने शंख-लिखित को उद्धृत करते हुए लिखा है कि यदि क्षविन एवं वैश्य शास्त्रविहित उपायों से अपने को न सँभाल सकें तो उन्हें राजा से भरण-पोषण की व्यवस्था के लिए मांग करनी चाहिए और राजा को चाहिए कि वह उनकी सहायता करे और क्षत्रिय तथा वैश्य शास्त्रविहित कर्मों से उसकी सहायता करें; यहाँ तक कि पालित एवं पोषित होने पर शूद्र को भी अपने शिल्प द्वारा राजा की सहायता करनी चाहिए। विपत्ति एवं अकाल के समय में राजा को अपने कोश से भोजन आदि की व्यवस्था करके प्रजा-पालन करना चाहिए (मनु ५२६४ की व्याख्या में मेधातिथि)। बुड्ढों, अन्धों, विधवाओं, अनाथों एवं असहायों की व्यवस्था तथा उद्योग या व्यवसाय द्वारा हीन क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों को समयानुकूल सहायता देना आदि अत्याधुनिक परम्पराएँ हैं, किन्तु प्राचीन भारतीय राजाओं ने ऐसा क्रम चला रखा था। अतः यह स्पष्ट है कि धर्मशास्त्रीय ग्रन्थों एवं दयालु राजाओं ने एक ऐसा वातावरण उपस्थित कर दिया था कि सामान्य राजा लोग भी अच्छे-अच्छे नियमों का पालन करते थे। अशोक महान् ने मनुष्यों एवं पशुओं के लिए अस्पताल खुलवाये थे (द्वितीय प्रस्तर अभिलेख)। उन्होंने धर्मशालाओं, अनाथालयों, पौसरों, छायादार वृक्षों, सिंचाई आदि की सुचारु व्यवस्था कर रखी थी । राजा खारवेल ने भी जलाशय खुदवाये थे । रुद्रदामा ने सुदर्शन नामक झील का पुनरुद्धार किया था । अनुशासनपर्व में आया है कि अच्छे राजाओं को चाहिए कि वे सभा-भवनों, प्रपाओं, जलाशयों, मन्दिरों, विश्रामालयों आदि का निर्माण करायें। और देखिए मत्स्यपुराण (२१५२६४)।
राजा के प्रति दिन के कार्यों के विषय में हमने द्वितीय भाग के बाईसवें अध्याय में पढ़ लिया है(कौटिल्य १।१६, मन ७११४५-१५७, २१६-२२६, याज्ञ. १।३२७-३३३, शुक्रनीति १२७६-२८५, अग्निपुराण २३५, विष्णधर्मोत्तर २।१५१, भागवत १०७०।४-१७,नीतिप्रकाश ८६, राजनीतिप्रकाश, पृ० १५३-१६६ आदि)। प्रति दिन शय्या से उठने पर राजा को तीनों वेदों में पारंगत ब्राह्मणों की बातें सुननी होती थीं और उनके अनुसार चलना पड़ता था (मन ७।३७ एवं गौतम० ११११३-१४ तथा वसिष्ठ० ११३६-४१) । प्रति दिन राजा कोप्रजा के सम्मुख दर्शन भी देना पड़ता था (अयोध्या० १००।५१, सभापर्व ५६०)।
कौटिल्य, महाभारत तथा अन्य ग्रन्थों ने राजा के समक्ष बहुत ही बड़ा आदर्श रख छोड़ा है। कौटिल्य का कहना है--"प्रजा के सुख में राजा का सुख है, प्रजा के हित में ही राजा का हित है...।"८ विष्णुधर्मसूत्र (३) में भी यही बात कही गयी है। जिस राजा ने अपनी प्रजा की भरपूर रक्षा की है उसे न तप करने की आवश्यकता है और न यज्ञ करने
राजा
७. शालाप्रपातडागानि देवतायतनानि च । ब्राह्मणावसथाश्चैव कर्तव्यं नृपसत्तमः ॥ अनुशासनपर्व (पराशरमाधवीय, भाग १, पृ० ४६६ में उद्धृत)।
८. राज्ञो हि व्रतमुत्थानं यज्ञः कार्यानुशासनम् । दक्षिणा वृत्तिसाम्यं च दीक्षितस्याभिषेचनम् ॥ प्रजासुखे सुख राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् । नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम् ॥ अर्थशास्त्र १११६ ।
६. प्रजासुखे सुखी राजा तद्दुःखे यश्च दुःखितः । स कोतियुक्तो लोकेस्मिन् प्रेत्य स्वर्ग महीयते ॥ विष्णुधर्मसूत्र (३, मन्तिम श्लोक राजधर्मकाण्ड द्वारा उद्धृत) । कृत्वा सर्वाणि कार्याणि सम्यक् संपाल्य मेदिनीम् । पालयित्वा तथा पौरान परत्र सुखमेधते ॥ किं तस्य तपसा राज्ञः किं च तस्याध्वरैरपि। सपालितप्रजो यः स्यात्सर्वधर्मविदेव सः ॥ शान्ति० (६६७२-७३) ।
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