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धर्मशास्त्र का इतिहास
का कर्तव्य है युद्ध करना और सबसे बड़ा आदर्श है समरांगण में मर जाना । मनु (७।८७-८६) का कहना है कि आक्रमण में प्रजा की रक्षा करते समय युद्ध-क्षेत्र से नहीं भागना चाहिए ; वे राजा जो युद्ध करते-करते मर जाते हैं, स्वर्ग प्राप्त करते हैं । सैनिकों को भी युद्ध करते-करते मर जाने पर स्वर्ग प्राप्ति होती है (याज्ञ० १।३२४) । और देखिए स्त्रीपर्व (२।१६ एवं १८ तथा ११1८-६), भगवद्गीता (२१३१-३७) । शान्ति० (७८।३१) का कहना है कि जिस प्रकार अश्वमेध यज्ञ के उपरान्त राजा के साथ जो-जो स्नान करते हैं सभी पापमुक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार सभी जाति वाले सैनिक युद्ध में मर जाने पर पापरहित हो जाते हैं। इस विषय में देखिए पराशर । ४ देवी नर्तकियाँ (अप्सराएँ) मरे हए (वीरगति प्राप्त किये हए) सैनिकों का सत्कार करती हैं (पराशर ३।३८) । ऋग्वेद (१०।१५४१३= अथर्ववेद १८।२।१७) में आया है कि युद्ध में प्राण गँवाने वाले सैनिक वही फल पाते हैं जो यज्ञों में सहस्रों गायों का दान करने वाले पाते हैं। सम्भवत: कौटिल्य (१०१३) ने सैनिकों को यद्ध के लिए प्रेरित करते हए इसी वैदिक उक्ति की
ओर संकेत किया है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२११०२६।२-३) ने भी राजा को प्रजा-रक्षार्थ युद्ध करने के लिए प्रेरित किया है। शान्तिपर्व (२१।१६ एवं ७७।२८ तथा ३०) ने कहा है कि गाय तथा ब्राह्मण की रक्षा करने में मर जाना श्रेयस्कर है। यही बात विस्तार से विष्णुधर्मोत्तर (३।४४-४६) में आयी है। भीष्मपर्व (१७१११) में भीष्म ने कहा है कि क्षत्रिय वीर के लिए घर में किसी रोग से मर जाना पाप है, परम्परा से चला आया हुआ नियम तो यह है कि वह लोहे से ही मृत्युका वरण करे। यही बात दूसरे ढंग से शल्यपर्व (५।३२) एवं शान्तिपर्व (६७।२३ एवं २५) में भी आयी है।
____ कामन्दक (५।८२-८३) ने स्पष्ट किया है कि प्रजा को राजा के बड़े कर्मचारियों, चोरों, शत्रुओं, राजवल्लभों (रानी एवं राजकुमारों) एवं स्वयं राजा के लोभ से बचाना होता है। वास्तव में प्रजा के ये पाँच भय हैं। राजनीतिज्ञों न इसी सिलसिले में यह भी कहा है कि उपर्युक्त कर्तव्यों के अतिरिक्त राजा को चाहिए कि वह विद्यार्थियों, विद्वान् ब्राह्मणों एवं याज्ञिकों का पालन करे । देखिए गौतम (१०।१६-१२, १८।३१), कौटिल्य (२।१), अनुशासन (६१।२८-३०), शान्ति० (१६५-६-७), विष्णुधर्मसूत्र (३७६-८०), मनु (७।८२ एवं १३४), याज्ञ ० (१।३१५ एव ३२३ तथा ३।४४), मत्स्यपुराण (२१५१५८), अत्रि (२४) । अतीत काल तथा मध्यकाल के राजाओ ने पर्याप्त उदारता के साथ उपर्युक्त सम्मति का पालन युगों तक किया । शासन के कार्य केवल शान्ति एवं सुख के स्थान तक ही सीमित नहीं थे, प्रत्युत उनके द्वारा संस्कृति का प्रसार भी आवश्यक माना जाता था । राजा को असहायों, वृद्धों, अंधों, लँगड़े-लुलों, पागलों, विधवाओं, अनाथों, रोगियों, गर्भवती स्त्रियों की सहायता (दवा, वस्त्र, निवास-स्थान देकर) करनी पड़ती थी। देखिए वसिष्ठ (१६।३५-३६), विष्णुधर्मोत्तर, (३६५), मत्स्य०
४. द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभैदिनौ । परिवाड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखे हतः ॥ पराशर (३॥३७) ---मेधातिथि द्वारा (मनु ७८६ की व्याख्या करते समय) उद्धृत।
५. आयुक्तकेभ्यश्चोरेभ्यः परेभ्यो राजवल्लभात् । पृथिवीपतिलोभाच्च प्रजानां पञ्चधा भयम् ॥ पञ्चप्रकारमप्येतदपोह्यं नृपतेर्भयम् । कामन्दक (५।८२-८३)।
६. कृपणानाथवृद्धानां विधवानां तु योषिताम् । योगक्षेमं च वृद्धि च नित्यमेव प्रकल्पयेत् ॥ शान्ति०(८६।२४ =मत्स्यपुराण २१५२६२ =अग्निपुराण २२।२५); कृपणातुरानाथव्यंगविधवाबालवृद्धानौषधावसथाशनाच्छादनैबिभृयात् । शंखलिखितौ (राजनीतिप्रकाश द्वारा उद्धत, पृष्ठ १३८); कच्चिदन्धांश्च मूकांश्च पंगून व्यंगानबान्धवान । पितेव पासि धर्मज्ञ तथा प्रवजितानपि । सभा० ५।१२४ ।
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