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अध्याय ३
राजा के कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व
सभी ग्रन्थकारों ने यह स्वीकार किया है कि राजा का प्रधान कर्तव्य है प्रजा-रक्षण । शान्तिपर्व (६८1१-४) का कहना है कि सातों राजशास्त्रप्रणेताओं ने राजा के लिए प्रजा-रक्षण सबसे बड़ा धर्म माना है। यही बात मनु (७.१४४), कालिदास (रघुवंश १४।६७) आदि ने भी कही है। प्रजा-रक्षण का तात्पर्य है चोरों, डाकुओं आदि के भीतरी आक्रमणों तथा बाहरी शत्रुओं से प्रजा के प्राण एवं सम्पत्ति की रक्षा करना ।' गौतम (१०१७-८, ११।६-१०) का कहना है कि राजा का विशिष्ट उत्तरदायित्व है सभी प्राणियों की रक्षा करना, न्यायोचित दण्ड देना, शास्त्र-विहित नियमों के अनुसार वर्णाश्रम की रक्षा करना तथा पथभ्रष्ट लोगों को सन्मार्ग दिखाना। वसिष्ठ (१६१२) का तो कहना है कि राजा के लिए रक्षण-कार्य जीवन-पर्यन्त चलने वाला एक सन्न है जिसमें उसे भय एवं मृदुता छोड़ देनी होगी। और देखिए वसिष्ठ (१६७-८ ), विष्णुधर्म सूत्र ( ३।२-३ ) । शान्ति० ( २३।१५) में आया है कि जिस प्रकार सर्प बिल में छिपे हुए चूहों को निगल जाता है, उसी प्रकार यह पृथिवी ऐसे राजा एवं ब्राह्मण को निगल जाती है जो क्रम से बाहरी आक्रामकों से नहीं भिड़ते एवं विद्या-ज्ञान के वर्धन के लिए दूर-दूर नहीं जाते। २ इस विषय में विशिष्ट रूप से पढ़िए मनु (६।३०६), याज्ञ० (१।३३५), कौटिल्य, नारद (प्रकीर्णक ३३ ), शुक्र ० (१।१४), अत्रि (श्लो० २८), विष्णुधर्मोत्तर (३।३२३।२५-२६) । इन स्थलों की बातों के अध्ययन से पता चलता है कि राजा के प्रमुख कर्तव्य ये थे-प्रजा का रक्षण या पालन, (२) वर्णाश्रम-धर्म-नियम का पालन, (३) दुष्टों को दण्ड देना तथा (४) न्याय करना।
रक्षा के लिए युद्ध करना या मर जाना सम्भव था, अतः धर्मशास्त्र के प्राचीन ग्रन्थों का कहना है कि क्षत्रिय
१. बृहस्पतिः । तत्प्रजापालनं प्रोक्तं त्रिविध न्यायवेदिभिः। परचक्राच्चौरभयान बलिनोऽन्यायवर्तिनः ।। परानीकस्तेनभयमुपायः शमयेन्नपः । बलवत्परिभूतानां प्रत्यहं न्यायदर्शनैः॥ राजनीतिप्रकाश द्वारा उद्धृत, पृष्ठ २५४-२५५ ।
___२. भूमिरेतो निगिरति सर्पो बिलशयानिव। राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥ शान्ति० (२३॥ १५) द्वारा बृहस्पति की बात उद्धृत । यही बात एक अन्य स्थल पर (शान्ति० ५७१३) उशना की कही गयी है। और देखिए सभापर्व (५५।१४) एवं शुक्रनीतिसार (४।७।३०३) ।
____३. तस्य धर्मः प्रजारक्षा वृद्धप्राजोपसेवनम् । दर्शनं व्यवहाराणामुत्थानं च स्वधर्मसु ॥ नारद (प्रकीर्णक ३३); नृपस्य परमो धर्मः प्रजानां परिपालनम् । दुष्टनिग्रहणं नित्यं न नीत्या ते विना युभे ॥ शुक्र० १।१४। दुष्टस्य दण्डः सुजनस्य पूजा न्यायेन कोशस्य च संप्रवृद्धिः। अपक्षपातोऽथिषु राष्ट्ररक्षा पञ्चैव यज्ञाः कथिता नृपाणाम् ॥ अत्रि (श्लोक २८); मिलाइए--दुष्टदण्डः सतां पूजा धर्मेण च धनार्जनम् । राष्ट्र रक्षा समत्वं च व्यवहारेषु पञ्चकम् ॥ भूमिपानां महायज्ञाः सर्वकल्मषनाशनाः ॥ विष्णुधर्मोत्तर (३।३२३।२५-२६) ।
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