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________________ ६०० धर्मशास्त्र का इतिहास वह इस संसार पर राज्य कर सकेगा। राजा को विनयी होना चाहिए । नीतिवाक्यामृत (पृ० १६२) ने विनय की यह परिभाषा की है-जो व्रतों एवं विद्याओं में प्रवीण तथा बड़ी अवस्था वाले हैं, उनके प्रति आदर के भाव को विनय कहते हैं । मनु (७।३८-३६),कामन्दक (१।१६-२० एवं ५६-६३), शुक्रनीति० (१।६२-६३) आदि ने विनय की महत्ता का वर्णन किया है। मनु (७।४०-४२) ने लिखा है कि बहुत-से राजा विनय के अभाव में शक्तिशाली रहने पर भी नष्ट हो गये। बहुत-से राजा विनय के कारण राजपद पर सुशोभित हुए और बहुत-से अविनयी राजा, यथा वेन, नहुष, सुदास, सुमुख, निमि आदि नाश को प्राप्त हो गये और पृथु, मनु जैसे राजा विनयी होने के कारण राजपद प्राप्त कर सके (और देखिए मत्स्य०२१५॥५३)। प्राचीन भारतीय लेखकों ने राजपद के आदर्श को इतनी महत्ता गयी है और कुमार की शिक्षा को इतना महत्त्व दिया है कि राजा को राजर्षि की उपाधि दे दी गयी है। कालिदास ने इसका बहुधा वर्णन किया है। (शाकुन्तल. २।१४, रघुवंश १।५८) । सुकरात की भाँति भारतीय लेख कों ने भी राजाओं को दार्शनिक-राजा या राजा-दार्शनिक कहा है (दार्शनिकों को राजा होना चाहिए या राजा को दार्शनिक होना चाहिए)। धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र ने राजा के लिए. नैतिक अनुशासन, संवेगों एवं इच्छा का सम्यक निर्देशन तथा परिमार्जन अत्यन्त आवश्यक माना है। कौटिल्य (१।६)ने लिखा है कि ज्ञानेन्द्रियों पर नियन्त्रण रख ना विद्याओं की प्राप्ति, प्रवीणता तथा अनुशासन के लिए परम आवश्यक है और यह सब दुष्ट प्रवृत्तियों, यथा कामुकता, रोष, लोभ अहंकार (मान), मद एवं अतिशय प्रसन्नता के त्याग से ही सम्भव है। उपर्युक्त दुष्ट प्रवृत्तियों (काम, क्रोध, मद, लोभ आदि) को शत्रु-षड्वर्ग या अरिषड्वर्ग कहा गया है। कामन्दक (१-५५-५८), शुक्रनीति (१।४४-१४६) ने भी ऐसा ही लिखा है। और देखिए मार्कण्डेय० (२७।१२-१३), सुबन्धु की वासवदत्ता, उद्योगपर्व (७४।१३-१८), मनु (७।४४ = मत्स्य० २१५३५५) आदि । मन (७।४५-५२) ने बहुत से दुगुणों की चर्चा की है, जिनसे राजाओं को बचना चाहिए। कौटिल्य (८१३) ने राजाओं के लिए जुआ खेलना बहुत बुरा माना है । कामन्दक (१।५४) ने शिकार खेलना (मृगया), जुआ खेलना तथा मद्यपीना वर्जित माना है, क्योंकि इन्हीं दुर्गुणों से क्रम से पाण्डु, नल एवं वृष्णियों का नाश हुआ । शुक्र० (१। ३३२-३३३)ने मृगया की अच्छी बातें मानी हैं, किन्तु पशु-हनन को बुरा टहराया है। और देखिए शुक्रनीति० (११ १०२-१०२, १०६-११६, ११४ एवं १।१२८), कामन्दक (१।४०-४६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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