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राजा की शिक्षा
शुक्रनीति (१।१५५) का कहना है कि १४ विद्याएँ (याज्ञ०१।३ में उल्लिखित) त्रयी के अन्तर्गत आ जाती हैं। गौतम (११।१६)ने वेदों, धर्मशास्त्रों, वेदांगों, उपवेदों एवं पुराणों पर बल दिया है। रामायण में आया है कि राम एवं उनके भाई वेदों, वेदांगों, धनुर्वेद, गांधर्ववेद, राजविद्या आदि में पारंगत थे (१।१८।२४ एवं २६, २।१।२०, २।२।३४-३५, ५॥३५॥१३-१४) । वनपर्व (२७७।४) में आया है कि राजकुमार वेदों एवं उनके पूत सिद्धान्तों तथा धनुर्वेद में प्रवीण थे। और देखिए आदिपर्व (२२१।७२-७४), अनुशासनपर्व (१०४।१४६-१४७) । खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख
है कि खारवेल लेखा (राजकीय लिखा-पढ़ी), रूप (मुद्रा-शास्त्र), गणना, न्याय-शास्त्र, गान्धर्ववेद (संगीत) में शिक्षित हुआ था। और देखिए रुद्रदामा का अभिलेख (एपिरॅफिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० ४४) एवं समुद्रगुप्त का अभिलेख (गुप्त अभिलेख सं० १, पृ० १२, १५-१६) । राजकुमार की शिक्षा के आदर्श पाठ्यक्रम के लिए देखिए डा० वेनीप्रसाद का ग्रन्थ "थ्योरी आव गवर्नमेण्ट इन ऐंशेण्ट इण्डिया", पृ० २१८, जहाँ उन्होंने बौद्ध ग्रन्थ, अश्वघोष के सत्रालंकार का उद्धरण दिया है। नीति वाक्यामत (०१६१) ने भी राजकमार द्वारा प्राप्त किये जाने वाले गणों की एक तालिका प्रस्तुत की है, यथा-सभी लिपियों का ज्ञान, रत्नों का मूल्यांकन करना, अस्त्र-शस्त्र-ज्ञान आदि । अग्निपुराण (२२५।१-४) में आया है कि राजकुमारों को धर्मशास्त्र, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, धनुर्वेद आदि का ज्ञान दिया जाना चाहिए"यदि वे पढ़ाये-लिखाये न जा सके तो उन्हें आमोद-प्रमोद के व्यापारों से ग्रस्त कर देना चाहिए, जिससे वे राजा के शत्नुओं आदि से मिल न सके। राजकुमारों को अपनी राजधानी या पास के किसी कालेज में शिक्षा दी जाती थी । कभी-कभी उन्हें तक्षशिला जैसे प्रसिद्ध ज्ञान-केन्द्रों में भेज दिया जाता था (देखिए फॉस्बॉल द्वारा सम्पादित जातक २।८७, २७८, २१६, ३२३, ४००, ३३१५८, १६८, ४१५, ४६३) । वहाँ पढ़ने के विषय थे तीनों वेद तथा १८ शिल्प या विद्याएँ (जातक, २१८७।३।११५) । कौटिल्य (१।४) का कहना है कि वार्ता में कृषि, पशु-पालन, सोना, साधारण धातुओं, बेगार आदि का ज्ञान सम्मिलित था, जिसके ज्ञान से राजा कोश एवं सेना बढ़ाता था और शनओं पर अधिकार रखता था। सभापर्व (५१७६) एवं अयोध्याकाण्ड (१००।४७) में आया है कि जब संसार वार्ता पर निर्भर रहता है तो वह बिना कठिनाई के समृद्धिशाली होता है। शान्तिपर्व (२६३१३) में सावधान किया गया है कि यदि वार्ता की चिन्ता न की जायगी तो यह विश्व नष्ट हो जायगा; विश्व के मूल में वार्ता है और यह तीनों वेदों द्वारा धारित है (६८।३५) । वनपर्व (१५०।३०) में भी आया है कि यह सम्पूर्ण विश्व वार्ता अर्थात् वाणिज्य, खान, व्यापार, कृषि, पशु-पालन द्वारा धारित एवं पालित है । और देखिए नीतिवाक्यामृत (पृ० ६३) । इन उद्धरणों से व्यक्त होता है कि समाज के आर्थिक ढाँचे एवं कृषि पर बहुत बल दिया जाता था। इसी से अर्थशास्त्र में बार्थिक विषयों पर प्रभूत चर्चा हुई है।
कौटिल्य (१।५) ने लिखा है कि तीन विद्याएं दण्ड पर आधारित हैं और दण्ड सहज एवं अजित दो प्रकार के अनुशासन पर निर्भर रहता है। विद्याओं से अजित अनुशासन की प्राप्ति होती है । कौटिल्य ने लिखा है कि चौल कर्म के उपरान्त राजकुमार को लिखने एवं अंकगणित का ज्ञान कराना चाहिए, उपनयन के उपरान्त उसे शिष्ट लोगों (वेदज्ञों) से वेद एवं आन्वीक्षिकी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए,विभिन्न विभागों के अधीक्षकों से वार्ता, व्यावहारिक राजनीतिज्ञों एवं व्याख्याताओं से दण्डनीति का अध्ययन करना चाहिए (और देखिए मनु ७४४३, मत्स्य० २१५३५४ एवं अग्नि० २२५५२१-२२)। कौटिल्य ने लिखा है कि सोलह वर्षों तक चार विद्याओं का अध्ययन करके राजकुमार को विवाह करना चाहिए। उसे सदैव शिष्ट लोगों के बीच में रहकर अपने ज्ञान को माँजते जाना चाहिए, राजा को दिन के प्रथम भाग में हाथी, घोड़े,रथ की सवारी तथा अस्त्र-शस्त्र का अभ्यास करना चाहिए ; दिन के अगले भाग में इतिहास अर्थात् पुराण, गाथाओं, प्रशस्तियों, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र का पाठ सुनना चाहिए । वह राजा, जिसकी मेधा इस प्रकार अनशासित रहेगी,जो अपनी प्रजा को अनुशासित रखने में संलग्न रहेगा तथा जो सबके कल्याण के लिए तत्पर रहेगा,
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