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धर्मशास्त्र का इतिहास की बातों को अंगीकार करना । इस विषय में और देखिए वनपर्व (२५११५) । सभापर्व (५।१२५) में आया है कि राजा के लिए छः विपत्तियाँ ये हैं-दिन में सोना, आलस्य, कायरता, रोष, सुकुमारता एवं दीर्घसूत्रता।
धर्मशास्त्रीय एवं अर्थशास्त्रीय ग्रन्थों ने राजा की शिक्षा-दीक्षा के विषय मे बहुत विस्तार किया है। गौतम (११३) ने लिखा है कि राजा को त्रयी (तीनों वेदों) एवं आन्वीक्षिकी की शिक्षा लेनी चाहिए । आन्वीक्षिकी की व्याख्या कई प्रकार से की गयी है। कौटिल्य (१।२) का कहना है कि आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत सांख्य, योग एवं लोकायत के विचार आते हैं । इसके अध्ययन से मन, वचन एवं कर्म में प्रौढ ता एवं वैलक्षण्य आ जाता है। आन्वीक्षिकी से सभी विद्याओं पर प्रकाश पड़ता है। यह धर्म का मूल है । अमरकोश, विश्वरूप (याज्ञ. १३०६), हरदत्त (गौतम ११६३) श्रादि के अनुसार आन्वीक्षिकी का अर्थ है तर्कशास्त्र । कामन्दक (२।७ एवं ११), मिताक्षरा (याज्ञ ० १।३११), शुक्रनीति (१।१५८) के अनुसार यह 'आत्मविद्या' है । राजनीतिप्रकाश (पृ० ११८) एवं शुक्रनीति (१।१५३) ने कहा है कि यह तर्कशास्त्र है जो आत्मविद्या की ओर ले जाता है। नीतिमयूख (पृ० ३४) ने आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत तर्कशास्त्र एवं वेदान्त को रखा है और क्या के अन्तर्गत मीमांसा एवं स्मृतियों को रखा है। बृहस्पतिसूत्र (२।५-६) ने राजा को सम्मति दी है कि वह अर्थ की प्राप्ति के लिए लोकायतिक के सिद्धान्तों का अनुसरण करे और कामसाधन तथा अन्य इच्छाओं की प्राप्ति के लिए वह कापालिक शास्त्र के अनुसार चले।१४।
राजा की शिक्षा के लिए उपयुक्त विद्याओं के विषय में कई मत हैं। मनुस्मृति (७।४३), शान्ति० (५६।३३), कौटिल्य (१।२), याज्ञ० (१।३११), कामन्दक (२२), शुक्रनीति (१।१५२), अग्नि० (२३८।८) के अनुसार राजा की शिक्षा के विषय चार हैं, यथा--आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता एवं दण्डनीति । कौटिल्य ने टिप्पणी की है कि मानवों के सम्प्रदाय के अनुसार विद्याएँ तीन हैं और आन्वीक्षिकी त्रयी को एक विशिष्ट शाखा है; बार्हस्पत्यों के सम्प्रदाय के अनुसार विद्याएं केवल दो हैं, यथा--वार्ता एवं दण्डनीति, क्योंकि नयी से सांसारिक ज्ञान की प्राप्ति के आगे आवरण आ जाता है; औशनसों के सम्प्रदाय के अनुसार राजा के लिए केवल दण्डनीति ही पर्याप्त है, क्योंकि अन्य विद्याएँ इसके साथ संलग्न हैं। स्पष्ट है, औशनसों एवं बार्हस्पत्यों के मत से राजा के लिए धर्म-ग्रन्थों एवं आत्मविद्या का ज्ञान आवश्यक नहीं है, उसे शासन-शास्त्र का व्यावहारिक अथवा लौकिक ज्ञान रखना चाहिए। दशकुमारचरित (८) ने चार विद्याएं ग्रहण के योग्य मानी हैं, यथा-"चासो राजविद्याः; बयी वान्विीक्षिको दण्डनीतिः", जो कौटिल्य के मतानुसार ही हैं। बार्हस्पत्यसूत्र (१।३) ने राजा के लिए केवल दण्डनीति (दण्डनीतिरेव विद्या) ही उचित ठहरायी है। कौटिल्य ने व्याख्या की है कि धर्म एवं इसके विरोधी तत्त्व तीन वेदों (ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद) से पढ़े जाते हैं, अथर्ववेद एवं इतिहासवेद (इतिहास एवं पुराण) अन्य वेद हैं, ये तथा छः अंग (वेदांग) त्रयी के अन्तर्गत आ जाते हैं।
१४. 'आन्वीक्षको' शब्द भी प्रचलित है, किन्तु 'आन्वीक्षिकी' व्याकरण-सम्मत है।
लोकायत सिद्धान्त की ओर कतिपय संकेत मिलते हैं, यथा---पतंजलि-महाभाष्य (जिल्द ३, पृ० ३२५, पाणिनि ॥३॥४५ की व्याख्या में)। आगे चलकर यह सिद्धान्त नास्तिकवाद का द्योतक माना जाने लगा। देखिए शंकर का वेदान्तभाष्य ( २१२।१ तथा ३॥३॥५३ एवं ५४ ); तन्त्रवातिक ( जैमिनि १॥३।३ ); रामायण (अयोध्या-कांड १००।३८-३६); काममूत्र (१।२।३०); राजशेखर (काव्यमीमांसा पृ० ३७); नीतिवाक्यामृत (पृ० ७६) । और देखिए अंग्रेजी में--जे० आर० ए० एस० (१६१७, पृ० १७५, टिप्पणी २);जे० ए० ओ० एस० (१६३०, पृ० १३२), धर्मशास्त्र का इतिहास (भा०-२, अध्याय ७, टिप्पणी); बी० ओ० आर० इंस्टिच्यूट, पूना का रजतजयन्ती ग्रन्थ, पृ० ३८६-३६७ जहां लोकायतों के विषय में कुछ ऐतिहासिक संकेत दिये गये हैं।
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