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राजा के गुण
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याज्ञ० (११३०६-३११) के अनुसार राजा को शक्तिमान्, दयालु, दूसरों के अतीत कर्मों का जानकार, तप, ज्ञान एवं अनुभव वालों पर आश्रित, अनुशासित मन वाला, अच्छे एवं बुरे भाग्य में समान स्वभाव रहने वाला, अच्छे मातृकुल एवं पितृकुल वाला, सत्यवादी, मन एवं देह से पवित्र ,कार्यपटु, शक्तिशाली, स्मृतिमान, वचन एवं कर्म में मृदु, वर्णाश्रम धर्म के नियमों का पालक, दुष्कर्मों से दूर रहने वाला, भेधावी, साहसी, रहस्य गोपनीय रखने में चतुर (भारुचि एवं अप. रार्क के अनुमार शत्रुओं के भेदों को जानने में चतुर), राज्य के दुर्बल स्थलों की रक्षा करने वाला, तर्कशास्त्र , शासनशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं तीनों वेदों में प्रशिक्षित होना चाहिए। उसे ब्राह्मणों के प्रति सहनशील, मित्रों के प्रति सरल, शत्रुओं के प्रति क्रूर एवं सेवकों तथा प्रजा के प्रति पितृवत् होना चाहिए। मनु (७।३२) ने भी ऐसा ही कहा है। इस प्रकार के गुण अंतरंग (भीतरी तथा अपेक्षाकृत आवश्यक) कहे जाते हैं । याज्ञ० ने १।३१२ से आगे बहिरंग गुणों का वर्णन किया है, यथा-मन्त्रियों का चुनाद, पुरोहित एवं यज्ञ कराने वाले याजकों का चुनाव, योग्य ब्राह्मणों को दान, रक्षा आदि । कौटिल्य (६।१) ने राजा के गुणों की सूची कई दृष्टिकोणों से उपस्थित की है। उसमें सबसे पहले ऐसे गुणों का वर्णन है जिनके द्वारा राजा लोगों के हृदय को जीत सके, यथा-कुलीनता, धर्मपरायणता, प्रफुल्लता, बड़ों-बूढों से सम्मति लेने की प्रवृत्ति, सदाचारिता, सत्यवादिता, वचनबद्धता, कृतज्ञता, विशाल चित्तता, उत्साह, अप्रमाद, सामन्तों को वश में रखने की क्षमता, दृढ-संकल्पता, स्वानुशासनप्रियता, अच्छे मन्त्रियों का रखना आदि । इन गुणों को आभिगामिक गुण कहा गया है (देखिए दशकुमारचरित, ८)। राजा के बुद्धिविषयक गुण ये हैं-~सीखने की अभिकांक्षा, अध्ययन एवं समझने की प्रवृत्ति तथा धारण करने की शक्ति, सुविचारणा, वाद-विवाद के उपरान्त सिद्धान्तों के प्रति श्रद्धा । यही बात कामन्दक (४।२२) ने भी कही है। कौटिल्य (६।१) द्वारा प्रयुक्त शब्द 'शक्यसामन्त' अग्निपुराण (२३६॥ ४) मे भी आया है। उत्साह-सम्बन्धी गुण ये हैं--पराक्रम, दूसरे के पराक्रम के प्रति असहिष्णुता, कार्यचपलता एवं उद्योग । कामन्दक (४१२३) ने भी यही लिखा है । इन बातों के निरूपण के उपरान्त कौटिल्य ने राजा की आत्मसम्पत् (उसके अपने विशिष्ट गुणों) की चर्चा की है। गौतम (११।२।४-६) के अनुसार राजा को शास्त्रविहित कार्य करना चाहिए, सत्य निर्णय देना चाहिए, बाहर-भीतर से पवित्र होना चाहिए, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए, अच्छे नौकरों वाला होना चाहिए, नीति-विषयक उपादानों का ज्ञान रखना चाहिए, प्रजा को समान दृष्टि से देखना चाहिए और प्रजा-कल्याण करना चाहिए । शंख-लिखित ने कौटिल्य एवं याज्ञवल्क्य की लम्बी सूची के समान कुछ अधिक या कम बातें कही हैं । शान्ति० (७०) ने राजा के ३६ गुणों की सूची दी है, यथा-उसे परुष वचन नहीं बोलना चाहिए, उसे धर्मनिष्ठ होना चाहिए, दुष्टता से दूर रहना चाहिए, हठी नहीं होना चाहिए, प्रिय वचन बोलना चाहिए आदि । कामन्दक (१।२१-२२) ने १६ गुण बताये हैं, यथा-दण्ड-नीति का अध्ययन, मेधा, गम्भीरता, चातुर्य, साहसिकता, ग्रहण सामर्थ्य, क्षमता, वाग्विदग्धता, दृढता, आपत्काल-सहिष्णता, प्रभविष्णुता, पवित्रता, दयालता उदारता, सत्यवादिता, कृतज्ञता, कुलीनता, चारित्र्य एवं आत्मनिग्रह । कामन्दक (४१२४) ने लिखा है कि राजा के लिए दानशीलता, सत्यवादिता एवं पराक्रम ऐसे तीन गुण हैं जो उसे अन्य गुणों की प्राप्ति में सहायता देते हैं। मानसोल्लास (२।१।२-७) ने ४४ गुण बताये हैं जो कौटिल्य की सूची से बहुत-कुछ मिलते हैं, किन्तु इसने पाँच विशिष्ट गुणों की भी चर्चा की है, यथा--सत्यवादिता, पराक्रम, क्षमाशीलता, दानशीलता एवं दूसरे की योग्यता को समझने की क्षमता । अग्निपुराण (२३६२-५) ने २१ गुणों का वर्णन किया है, यथा--कुलीनता, चारित्र्य आदि । परशुरामप्रताप में ६६ गुणों की चर्चा हुई है। सभापर्व (५१०७-१०६) एवं रामायण (२।१००।६५-६७) ने १४ दोषों से बचने के लिए उपदेश दिया है, यथा-नास्तिकता, असत्यवादिता, क्रोध, अनवधानता, प्रमाद, समझदारों से न मिलना, आलस्य, पाँचों इन्द्रियों के सुखों में लगा रहना, मन्त्रियों से सम्मति न लेना, राजनीति-ज्ञान-विहीनों से सम्मति लेना, निर्णीत बातों के अनुसार न चलना, गप्त नीति का पालन न करना, शुभ कार्य न करना, एक ही समय सभी प्रकार
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