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________________ १००४ धर्मशास्त्र का इतिहास सकती थी, किन्तु स्मार्त अग्नि अथवा साधारण अग्नि इस प्रकार नहीं जलायी जानी चाहिये (उसे पंखे या बाँस की फूंकनी से जलाना चाहिये) । कलिवर्ण्य उक्ति ने श्रीत अग्नि को भी मुख से उत्तेजित करना वजित माना है। (३६) बलात्कार आदि द्वारा अपवित्र स्त्रियों (जब कि उन्होंने प्रायश्चित्त कर लिया हो) को शास्त्रानुमोदित सामाजिक संसर्ग-सम्बन्धी अनुमति कलिवर्ण्य है । वसिष्ठ (२८।२-३)का कथन है--"जब स्त्री बलात्कार द्वारा या चोरों द्वारा भगायी जाने पर अपवित्र कर दी गयी हो तो उसे छोड़ना नहीं चाहिये, मासिक धर्म आरम्भ होने तक बाट देखनी चाहिये (तब तक उससे प्रायश्चित्त कराते रहना चाहिये) और उसके उपरान्त वह पवित्र हो जाती है।" यही बात अत्रि ने भी कही है। मत्स्यपुराण (२२७।१२६) इस विषय में अधिक उदार है और उसका कथन है कि बलात्कारी को मृत्युदंड मिलना चाहिये किन्तु इस प्रकार अपवित्र की गयी स्त्री को अपराध नहीं लगता । पराशर (१०॥ २७) ने कहा है कि यदि स्त्री किसी दुष्ट व्यक्ति द्वारा एक बार बलवश अपवित्न कर दी जाय तो वह प्राजापत्य व्रत के प्रायश्चित्त द्वारा पवित्र हो जाती है (मासिक धर्म होने के उपरान्त)। देवल जैसे पश्चात्कालीन स्मतिकार ने कहा है कि किसी भी जाति की कोई स्त्री यदि म्लेच्छ द्वारा अपवित्र कर दी जाय और उसे गर्भ धारण हो जाय तो वह मान्तपन व्रत के प्रायश्चित्त से शुद्ध हो सकती है। किन्तु यह कलिवयं निर्दोष एवं अभागी स्त्रियों के प्रति कठोर है, क्योंकि यह प्रकट करता है कि प्रायश्चित्त के उपरान्त भी ऐसी स्त्रियाँ सामाजिक संसर्ग के योग्य नहीं होती। (४०) सभी वर्गों के सदस्यों से संन्यासी द्वारा शास्त्रानुमोदित भिक्षा लेना कलिवर्ण्य है । स्मृतिमुक्ताफल (पृ० २०१, वर्णाश्रम)ने काठक ब्राह्मण, आरणि, उपनिषद् पराशर (गद्य में) को इस विषय में उद्धृत कर कहा है कि यति सभी वर्गों के सदस्यों के यहाँ से भोजन की भिक्षा मांग सकता है। यही बात बौधा० ध० सू० (२।१०।६६) ने एक उद्धरण देकर कही है। वसिष्ठ (१०१७)ने कहा है कि यति को पहले से न चुने हुए सात घरों से भिक्षा माँगनी चाहिये और आगे (१०।२४) कहा है कि उसे ब्राह्मणों के घरों से प्राप्त भोजन पर ही जीना चाहिये । उपस्थित कलिवयं यतियों को भी भोजन के विषय में जाति-नियम पालन करने को बाध्य करता है। (४१) नवीन उदक (नये वर्षाजल) का दस दिनों तक सेवन न करना कलिवर्य है । हरदत्त (आप० ध० सू० १।५।१५।२), भट्टोजि दीक्षित (चतुर्विशतिमत, पृ० ५४), स्मृतिकौस्तुभ (पृ० ४७६) ने एक श्लोक उद्धृत किया है--"अजाएँ (बकरियाँ), गाय, भैसें एवं ब्राह्मण-स्त्रियां (संतानोत्पत्ति के उपरान्त) दस रात्रियों के पश्चात् शद्ध हो जाती है और इसी प्रकार पृथ्वी पर एकत्र नवीन वर्षा काजल भी।" किन्तु इस कलिवयं के अनुसार वर्षाजल के विषय में दस दिनों की लम्बी अवधि अमान्य ठहरा दी गयी है। भट्टोजि दीक्षित ने एक स्मृति का सहारा लेकर कहा है कि उचित ऋतु में गिरा हुआ वर्षांजल पवित्र होता है किन्तु तीन दिनों तक इसे पीने के काम में नहीं लाना चाहिये । जब वर्षा असाधारण ऋतु में होती है तो उसका जल दस दिनों तक अशुद्ध रहता है और उसे यदि कोई व्यवित उस अवधि में पी ले तो उसे एक दिन और एक रात भोजन ग्रहण से वंचित होना चाहिये । भट्टोजि दीक्षित का कहना है कि कलिवयं वचन केवल दस दिनों की अवधि को अमान्य ठहराता है। किन्तु तीन दिनों तक न पीने के नियम को अमान्य नहीं ठहराता। (४२) ब्रह्मचर्यकाल के अन्त में गुरुदक्षिणा माँगना कलिवर्ण्य है। प्राचीन आचार के अनुसार गुरुदक्षिणा के विष य में कोई समझौता नहीं होता था। देखिये बृहदारण्यकोपनिषद् (४।१।२) । गौतम (२१५४-५५) ने कहा है कि विद्याध्ययन के उपरान्त विद्यार्थी को जो कुछ वह दे सके, उसे स्वीकार करने के लिए गुरु से प्रार्थना करनी चाहिये, या गुरु से पूछना चाहिये कि वह उन्हें क्या दे और गुरुदक्षिणा देने या गुरु द्वारा आज्ञापित कार्य करने के उपरान्त या यदि गुरु उसे बिना कुछ लिये हुए घर जाने की आज्ञा दे दे, तो उसको (विद्यार्थी को) स्नान (ऐसे अवसर पर जो कृत्य स्नान के साथ किया जाता है) करना चाहिये । देखिय मनु (२०२४५-२४६)और इस ग्रंथ का खंड २, अ०७ । याज्ञ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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