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कलिवों की तालिका
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(१३५१)ने भी ऐसी ही बात कही है। इन्हीं व्यवस्थाओं के कारण हमें प्राचीन साहित्य में ऐसे उपाख्यान उपलब्ध होते हैं जिनमें आचार्यों (गुरुओं) या उनकी पत्नियों की चित्र-विचित्र मांगों के दृष्टान्त व्यक्त हैं। यह कलिवर्ण्य वचन गुरुद्वारा अपेक्षित माँगों को अमान्य तो ठहराता है किन्तु विद्यार्थी द्वारा अपनी ओर से दी गयी दक्षिणा को वजित नहीं करता।
(४३) ब्राह्मण आदि के घरों में शूद्र द्वारा भोजन आदि बनाना कलिवर्ण्य है। आप० ध० सू० (२।२।३। १-८) ने कहा है कि वैश्वदेव के लिए भोजन तीन उच्च वर्गों का कोई भी शुद्ध व्यक्ति बना सकता है और विकल्प से यह भी कहा है कि शूद्र भी किसी आर्य का भोजन बना सकता है, यदि वह प्रथम तीन उच्च वर्णों की देख-रेख में ऐसा करे जब वह अपने बाल, शरीर का कोई अंग या वस्त्र छूने पर आचमन करे, अपने शरीर एवं सिर के बाल, दाढ़ी एवं नाखून प्रति दिन या महीने के प्रति आठवें दिन या प्रतिपदा एवं पूर्णिमा के दिन कटाये तथा वस्त्र सहित स्नान करे । इस कलिवयं ने इस अनुमति को दूर कर दिया है।
(४४) अग्नि-प्रवेश या प्रपात से गिरकर वृद्ध लोगों द्वारा आत्महत्या करना कलिवर्ण्य है। अनि ने कुछ विषयों में आत्म-हत्या निंद्य नहीं ठहरायी है। उनका (२१८-२६६) कथन है-'यदि कोई बूढ़ा हो गया हो(७० वर्ष के ऊपर), यदि कोई (अत्यधिक दुर्बलता के कारण) शरीर-शुद्धि के नियमों का पालन न कर सके, यदि कोई इतना बीमार हो कि सभी औषधे व्यर्थ सिद्ध हो जाती हों और यदि कोई इन परिस्थितियों में प्रपात से गिरकर या अग्नि-प्रवेश करके या जल द्वारा या अनशन से आत्महत्या कर लेता है, तो उसके लिए सूतक केवल तीन दिनों का रहता है और चौथे दिन उसका श्राद्ध किया जा सकता है।" यही बात 'अपराक' (पृ० ५३६) ने भी अपने ढंग से कही है । देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अ० २७ । यह कलिवयं उन लोगों के लिए भी वर्जना-स्वरूप है जो जान-बूझकर महापातकों का अपराध करके फलतः प्रायश्चित्त के लिए अग्नि-प्रवेश करके या प्रपात से गिरकर आत्महत्या कर डालना चाहते हैं । देखिये 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।२२६) । शुद्धितत्त्व(पृ० २८४-२८५) का कथन है कि कलियुग में केवल शूद्र लोग जल प्रवेश आदि से आत्महत्या कर सकते हैं, ब्राह्मणों आदि के लिए यह वर्जित है।
(४५) शिष्टों द्वारा गोतृप्ति मात्र जल से आचमन-क्रिया करना कलिवयं है । मनु (५।१२८), वसिष्ठ (३॥३५), बौधा० ध • सू० (१।५।६५), याज्ञ० (१।१६२) एवं विष्णु (२३।४३) के अनुसार पृथ्वी पर इकट्ठा हुआ जल पवित्र माना जाता है और इससे आचमन किया जा सकता है, यदि वह एक गाय की प्यास बुझाने भर के लिए पर्याप्त हो । किन्तु यह कलिवर्त्य स्वास्थ्य-सम्बन्धी बातों के आधार पर पृथ्वी पर एकत्र अल्प जल को आचमन आदि के लिए वजित मानता है।
(४६) यति द्वारा उस घर में, जिसके निकट वह सायंकाल ठहरा हो, (भिक्षार्थ) रहना कलिवयं है । आप० ध० सू० (२।२१।१०)एवं मनु (६।४३,५५-५६) के मत से यति अग्नि नहीं जलाता, वह गृहहीन होता है और वह दिन में केवल एक बार अपराह्न में या संध्या समय तब भिक्षा माँगता है जब कि लोगों के रसोईघर से धूम न उठ रहा हो, जब जलते हुए कोयले बुझ गये हों और जब लोग खा-पी चुके हों। वसिष्ठ (१०।१२।१५) का कहना है कि संन्यासी को अपना निवास बदलते रहना चाहिये, उसे गाँव की सीमा ( सरहद)पर या मंदिर में, किसी निर्जन घर में या किसी पेड़ के नीचे ठहरना चाहिये या लगातार किसी वन में रहना चाहिये । शंख (७।६) का कथन है कि संन्यासी (यति) को किसी खाली घर में या वहाँ जहाँ सूरज डूब जाय, ठहरना चाहिये । शंख की इस व्यवस्था को कलिवयं की इस उक्ति ने अमान्य ठहराया है । कृष्ण भट्ट (निर्णयसिन्धु पृ० १३१०) के मत से इन शब्दों का अर्थ मनु (६।५६) की उस व्यवस्था के विरोध में पड़ जाता है कि संन्यासी का सन्ध्या समय जब रसोईघरों से धूम निकलना बन्द हो गया हो, ग्राम में घर-घर से भिक्षा मांगनी चाहिये, अर्थात् यह कलिवयं-उक्ति दुपहर में भिक्षा माँगने की अनुमति देती है । एक प्रकार से यह अच्छी व्याख्या है।
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