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कलिवज्यों की तालिका
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(३४) आपत्तिकाल में ब्राह्मण द्वारा जीविका-साधन के लिए अन्य विधियों का अनुसरण कलिवज्यं है। ब्राह्मणों की जीविका (वृत्ति) के विशिष्ट साधन ये हैं--दानग्रहण, वेदाध्यापन एवं यज्ञों में पुरोहिती करना (पौरोहित्य) । इसके लिए देखिये गौतम (१०१२), आप० (२॥५॥१०॥५), मनु (१०७६।१।८८), वसिष्ठ (२।१४) एवं याज्ञ० (१।११८) प्राचीन काल से ही यह प्रतिपादित था कि यदि ब्राह्मण उपर्युक्त साधनों से जीविका न चला सके तो आपत्तिकाल में क्षत्रिय एवं वैश्य की वृत्तियां धारण कर सकता है (गौतम ७१६-७, बौधा० २।२।७७-८१, वसिष्ठ २।२२, मनु १०।८१-८२ एवं याज्ञ० ३।३५) । और देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अ० ३। यह कलिवयं केवल पुस्तकों के पृष्ठों तक सीमित रह गया है। आरम्भिक काल से ब्राह्मणों ने सभी प्रकार की वृत्तियाँ अपनायी हैं मौर यह नियम सम्मानित नहीं हो सका है।
(३५) अग्रिम दिन के लिए सम्पत्ति (या अन्न) का संग्रह न करना कलिवर्ण्य है। मनु (४७) एवं याच. (१११२८) ने ब्राह्मणों को चार भागों में बाँटा है--(१) वे जो एक कुसूल भर अन्न एकत्र रखते हैं, (२) जो एक कुम्भी भर अन्न एकत्र रखते हैं, (३) जो केवल तीन दिनों की आवश्यकता की पूर्ति के लिए अन्न संग्रह करते हैं तथा
वे जो आनेवाले कल के लिए भी अन्न संग्रह नहीं करते । स्मतियों ने इनमें से प्रत्येक पूर्ववर्ती से उत्तरवर्ती को अधिक गुणशाली माना है। कुसूल-धान्य के अर्थ के विषय में मतैक्य नहीं है, कोई इसे तीन वर्षों के लिए और कोई इसे केवल १२ दिनों के अन्न-संग्रह के अर्थ में लेते हैं, यही बात कुम्भोधान्य के विषय में भी है, किसी ने इसे साल भर के और किसी ने केवल ६ दिन के अन्नसंग्रह के अर्थ में लिया है। देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अध्याय ३ । 'मिताक्षरा' (याज्ञ. ११२८) का कथन है कि तीन दिनों या एक दिन के लिए भी अन्न संग्रह न करना सभी ब्राह्मणों के लिए नहीं है, प्रत्युत यह उनके लिए है जो यायावर कहे जाते हैं। इससे प्रकट होता है कि 'मिताक्षरा' को यह कलिवयं कथन या तो ज्ञात नहीं था या उसने इस पर गम्भीरता से विचार नहीं किया। इस कलिवयं का तात्पर्य यह है कि कलियम में अति दरिद्रता एवं संग्रहाभाव का आदर्श ब्राह्मणों के लिए आवश्यक नहीं है।
(३६) नवजात शिशु की दीर्घायु के लिए होनेवाले जातकर्म होम के समय (वैदिक अग्नि के स्थापनार्थ) जलती लकड़ी का ग्रहण कलिवर्ण्य है । गार्हपत्य अग्नि को प्रकट करने के लिए अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष की दो टहनियां जिन्हें अरणी कहा जाता है, रगड़ी जाती हैं । कुख शाखाओं में जातकर्म कृत्य में अग्नि उत्पन्न करने के लिए अरणियां रगड़ी जाती थीं, और उनसे उत्पन्न अग्नि आगे चलकर बच्चे के चूड़ाकरण, उपनयन एवं विवाह के संस्कारों में प्रयुक्त होती थी। इससे यह समझा जाता था कि बच्चा लम्बी आयु का होगा।
(३७) ब्राह्मणों द्वारा लगातार यात्राएँ करते रहना कलिवज्यं है। महाभारत (शान्ति २३।१५) का कथन है कि जिस प्रकार सर्प बिल में छिपे हुए चूहों को निगल जाता है, उसी प्रकार यह पृथ्वी अविरोद्धा (आक्रामक से न लड़ने वाले) राजा एवं अप्रवासी (यात्रा न करनेवाले) ब्राह्मण को निगल जाती है । प्रवासी-ब्राह्मण का तात्पर्य है उस ब्राह्मण से जो प्रसिद्ध आचार्यों के यहाँ विद्याध्ययन के लिए जाता रहता है। यह कलिवयं उस लम्बी यात्रा से सम्बन्धित है जो निरुद्देश्य की जाती है, उससे नहीं जो विद्याध्ययन एवं धार्मिक कृत्यों के लिए की जाती है।
(३८) अग्नि प्रज्वलित करने के लिए मुंह से फूंकना कलिवयं है। मनु (४।५३) एवं ब्रह्मपुराण (२२१) २०१) ने मुखाग्निघमन क्रिया को वजित ठहराया है, क्योंकि ऐसा करने से यूक की बूंदों से अग्नि अपवित्र हो सकती है । हरदत्त (आप० ध० सू० १।५।१५।२०)ने कहा है कि वाजसनेयी शाखा में आया है कि अग्नि को मुख से फूंककर उत्तेजित करना चाहिये, क्योंकि ऐसा उच्छ्वास विधाता के मुख से निकला हुआ समझा जाता है (पुरुषसूक्त,ऋग्वेद १०६०।१३) । अतः हरदत्त एवं गोभिलस्मृति (१।१३५-१३६) के अनुसार श्रीत अग्नि मुख की फूंक से जलायी जा
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