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धर्मशास्त्र का इतिहास
(२६) यज्ञ में बलि होनेवाले पशु का ब्राह्मण द्वारा हनन कलिवर्ण्य है। श्रौत यज्ञ में पशु की हत्या गला घोट कर की जाती थी। जो व्यक्ति श्वासावरोध कर अथवा गला घोट कर पशु-हनन करता था, उसे शामित्र कहा जाता था। कौन शामिन हो, इस विषय में कई भत हैं । जैमिनि (३।७।२८-२६) ने स्वयं अध्वर्यु को शामिन कहा है । किन्तु सामान्य मत यह है कि वह ऋत्विजों के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति होता था। आश्वलायन श्रौतसूत्र (१२।६।१२-१३) ने कहा है कि वह ब्राह्मण या अब्राह्मण हो सकता है। अधिक विस्तार के लिए देखिये इस ग्रंथ का द्वितीय खंड, अ० ३२ । पशुयज्ञ कालान्तर में निन्द्य या वजित मान लिये गये, अतः ब्राह्मण का शामित्र होना भी वजित है।
(३०) ब्राह्मण द्वारा सोमविक्रय कलिवर्ण्य है। केवल ब्राह्मण ही सोमरस-पान कर सकते थे। सोम लता क्रय की जाती थी, जिसके विषय में प्रतीकात्मक मोल-तोल होता था। कात्या० श्री० सू० (७॥६२-४) एवं आप० श्रो० सू० (१०।२०।१२) के मत से प्राचीन काल में सोम का विक्रेता कुत्स गोत्र का कोई ब्राह्मण या कोई शूद्र होता था। मनु (११।६० = शान्ति० १६५७) एवं नारद (दत्ताप्रदानिक, ७) ने सोम-विक्रेता ब्राह्मणको श्राद्ध में निमंत्रित किये जाने के अयोग्य ठहराया है और उसके यहाँ भोजन करना वर्जित माना है। मनु (१०८८) ने ब्राह्मण को जल, हथियार, विष, सोम आदि विक्रय करने से मना किया है । देखिय इस ग्रंथ के द्वितीय खंड का अध्याय ३३ ।
(३१) अपने दास, चरवाहे (गोरक्षक), वंशानुगत मित्रएवं साझेदार के घर पर गृहस्थ ब्राह्मण द्वारा भोजन करना कलिवर्ण्य है । गौतम (१७।६), मनु (४।२५३ = विष्णु०५७।१६), याज्ञ० (१।१६६) एवं पराशर (११।१६) का कहना है कि ब्राह्मण इन लोगों का तथा अपने नापित (नाई) का भोजन कर सकता है। हरदत्त (गौतम १७१६) एवं 'अपराक' (पृ० २४४) का कथन है कि ब्राह्मण अत्यंत विपत्तिग्रस्त परिस्थितियों में इन शूद्रों के यहाँ भोजन कर सकता है । इससे यह विदित होता है कि १२वीं शताब्दी तक यह कलिवर्ण्य या तो ज्ञात नहीं था अथवा इसको मान्यता नहीं प्राप्त हुई थी। कलिवर्यों ने भोजन और विवाह के विषयों में संकीर्णता को और कठिनतर बना दिया।
(३२) अति दूरवर्ती तीर्थो को यात्रा कलिवर्ण्य है। ब्राह्मण को वैदिक एवं गृह्य अग्नियां स्थापित करनी पड़ती थीं । यदि वह दूर की यात्रा करेगा तो इसमें बाधा उत्पन्न होगी। आप० श्री० सू० (४।१६।१८) ने व्यवस्था दी है कि लम्बी यात्रा में अग्निहोत्री को अपने घर की अग्निवेदिका की दिशा में मुंह कर मानसिक रूप से अग्निहोम एवं दर्श-पूर्णमास की सारी विधि करनी पड़ती है । देखिये इस विषय में गोभिलस्मृति (२११५७) भी। स्मतिकौस्तुभ का कहना है कि यह कलिवयं समुद्र पार के या भारतवर्ष की सीमाओं के तीर्थस्थानों के विषय में है । आश्चर्य है कि यह कलिवर्ण्य ब्राह्मण को दूरस्थ तीर्थ की यात्रा करने से मना तो करता है किन्तु उसे यज्ञों के सम्पादन द्वारा धन कमाने के लिए यात्रा करने से नहीं रोकता।
(३३) गुरु की पत्नी के प्रति शिष्य को गुरुषत् वृत्तिशीलता कलिवर्ण्य है। आप०३० सू० (१।२।७२७), गौतम (२।३१-३४), मनु (२।२१०) एवं विष्णु (३३।१-२) ने कहा है कि शिष्य को गुरु की पत्नी या पत्नियों के प्रति वही सम्मान प्रदर्शित करना चाहिये जिसे वह गुरु के प्रति प्रदर्शित करता है (केवल प्रणाम करते समय चरण छूना एवं उच्छिष्ट भोजन करना मना है) । शिष्य बहुधा युवावस्था के होते थे और गुरुपत्नी युवा हो सकती थी। अतः मनु (२।२१२,२१६ एवं २१७ = विष्णु ३२।१३-१५) का कहना है कि बीस वर्ष के विद्यार्थी को गुरुपत्नी का सम्मान पैर छूकर नहीं करना चाहिये, प्रत्युत वह गुरुपत्नी के समक्ष पृथ्वी पर लेटकर सम्मान प्रकट कर सकता है, किन्तु यात्रा से लौटने पर केवल एक बार पैरों को छूकर सम्मान प्रकट कर सकता है। अत: स्पष्ट है कि यह कलिवयं मनु एवं विष्णु के नियमों का पालन करता है। ‘स्मृतिकौस्तुभ' एवं 'धर्मसिन्धु' (३, पृ० ३५८) का कहना है कि इस कलिवर्ण्य से याज्ञ० (१।४६) का वह नियम कट जाता है जिसके अनुसार नैष्ठिक ब्रह्मचारी मृत्युपर्यंतं अपने गुरु या गुरुपुत्रों या (इन दोनों के अभाव में) गुरुपत्नी के यहाँ रह सकता है ।
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