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कलिवज्यों की तालिका
१००१ नारियों को 'सान्तपन' नामक प्रायश्चित्त द्वारा पवित्र बना लेने की व्यवस्था दी है ( ४७-४६ ) । और देखिये अति (२०१ - २०२) एवं पराशर (१०।२४-२५) ।
(२५) दूसरे के लिए अपने जीवन का परित्याग कलिवर्ज्य है । विष्णुधर्म सूत्र ( ३।४५ ) का कथन है कि जो लोग गौ, ब्राह्मण, राजा, मित्र, अपने धन अपनी स्त्री की रक्षा करने में प्राण गँवा देते हैं वे स्वर्ग प्राप्त करते हैं । उन्होंने आगे (१६।१८ ) यहाँ तक कह डाला है कि अस्पृश्य लोग (जो चारों वर्णों की सीमा के बाहर हैं) भी ब्राह्मणों, गायों, स्त्रियों एवं बच्चों के रक्षार्थ प्राण गँवाने पर स्वर्ग प्राप्त करते हैं । 'आदित्यपुराण' (राजधर्मकाण्ड, पृ०, ६१) में भी यही श्लोक है । और देखिये समय मयूख एवं भट्टोज दीक्षित (चतुविशतिमत, पृ० ५४) । यह कलिवर्ज्य मत आत्मत्याग की वर्जना इसलिए करता है कि इससे केवल स्वर्ग की प्राप्ति होती है । यह कलिब केवल द्विजों के लिए है, शूद्रों के लिए नहीं ( कलिवर्ज्य विनिर्णय १२० ) ।
(२६) उच्छिष्ट ( खाने से बचे हुए जूठ भोज्य पदार्थ ) का दान कलिवर्ज्य है । मधुपर्क प्राशन में सम्मानित अतिथि मधु, दूध एवं दही का कुछ भाग स्वयं ग्रहण करता था और शेष किसी ब्राह्मण (या पुत्र या छोटे भाई) को दे देता था । अब यह कलिवर्ज्य है । देखिये इस ग्रंथ काखंड २, अ० १०, जहाँ मधुपर्क के विषय में सविस्तार लिखा गया है। आप० ध० सू० (१।१।४।१-६) ने कहा है कि शिष्य गुरु का उच्छिष्ट प्रसाद रूप में पा सकता है, किन्तु गुरु को
चाहिये कि वह वैदिक ब्रह्मचारियों के लिए वजित मधु या मांस या अन्य प्रकार का भोज्य याज्ञ० (१।२१३) का कथन है कि यदि कोई सुपात्र व्यक्ति दान ग्रहण कर उसे अपने पास न दे देता है, तो वह उन उच्च लोकों की प्राप्ति करता है जो उदार दानियों को प्राप्त होते हैं ।
पदार्थ शिष्य को न दे । रखकर किसी और को
(२७) किसी विशिष्ट देवमूर्ति की ( जीवन भर ) विधिवत् पूजा करने का प्रण करना कलिवर्ज्य है । इस प्रकार के वर्जन का कारण समझना कठिन है । इस विषय में भट्टोजि दीक्षित, कलिवर्ज्यविनिर्णय, समयमयूख एवं अन्य लोगों द्वारा उपस्थापित व्याख्याएं संतोषप्रद नहीं हैं। निर्णयसिन्धु की व्याख्या अपेक्षाकृत अच्छी है. क्योंकि इसने इस वर्ज्य को पारिश्रमिक पर की जानेवाली किसी विशिष्ट प्रतिमा-पूजा तक सीमित रखा है । 'अपरार्क' (४५० एवं ६२३) ने किसी स्मृतिवचन को उद्धृत कर देवलक की परिभाषा दी है और कहा है कि देवलक वह ब्राह्मण है जो किसी प्रतिमा का पूजन पारिश्रमिक के आधार पर तीन वर्षों तक करता है, जिसके लिए वह श्राद्धों के पौरोहित्य के लिये अयोग्य हो जाता है। स्पष्ट है, इस कथन के अनुसार देवलक ब्राह्मण वित्तार्थी है । मनु ( ३।१५२ ) ने देवलक को श्राद्धों तथा देवताओं के सम्मान में किये गये कृत्यों में निमंत्रित किये जाने के लिये अयोग्य घोषित किया है। कुल्लूक देवल को उद्धृत कर इस विषय में कहा है कि जो व्यक्ति किसी देवस्थान के कोष पर निर्भर रहता है, उसे देवलक कहा जाता है । वृद्ध हारीत ( ८1७७-८० ) के मत से केवल शिव के वित्तार्थी पूजक देवलक कहे जाते हैं ।
(२८) अस्थिसंवयन के उपरान्त अशौचवाले व्यक्तियों को छूना कलिवर्ज्य है । शव-दाह के उपरान्त अस्थिसंचयन के दिन के विषय में धर्मशास्त्रकारों में मतभेद है। इसी कारण 'मिताक्षरा' ने अपने-अपने गृह्यसूत्रों के अनुसरण की बात कही है । 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।१७ ) ने कहा है कि संवर्त (३८) के मत से अस्थियाँ पहले, तीसरे, सातवें या नवें दिन संचित की जानी चाहिये ; विष्णुध ० सू० ( १६ १०- ११ ) के मत से चौथे दिन अस्थियाँ संगृहीत कर गंगा में बहा दी जानी चाहिये और कुछ लोगों के मत से उनका संग्रह दूसरे दिन होना चाहिये। 'मिताक्षरा' ने पुन: (याज्ञ० ३।१८) देवल का इसी विषय में उद्धरण देकर कहा है कि अशुद्धि की अवधि के तिहाई भाग की समाप्ति के उपरान्त व्यक्ति स्पर्श के योग्य हो जाते हैं और इस प्रकार चारों वर्णों के सदस्य क्रम से ३, ४, ५ एवं १० दिनों के उपरान्त स्पर्श के योग्य हो जाते हैं । और देखिये संवर्त ( ३६।४० ) । उपस्थित कलिवर्ज्य वचन ने यह सब वर्जित माना है और अशुद्धि के नियमों के विषय में कठिन
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नियम दिये हैं ।
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