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कलिवज्यों को तालिका
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(२) नियोग -- इसके विषय में हमने इस ग्रन्थ के खंड २, अध्याय १३ में विस्तार के साथ लिखा है । जब पति या पत्नी पुत्रहीन होते हैं तो पति के भाई अर्थात् देवर या किसी सगोत्र आदि द्वारा पत्नी से सन्तान उत्पन्न की जाती है तो यह प्रथा नियोग कहलाती है। अब यह कलिवर्ज्य है ।
(३) गौण पुत्रों में औरस एवं दत्तक पुत्र को छोड़कर सभी कलिवर्ज्य हैं। देखिये इस खंड का अध्याय २७ । (४) विधवाविवाह-- देखिये इस ग्रन्थ का खंड २ अध्याय १४ । कुछ वसिष्ठ ( १७/७४) आदि स्मृतिशास्त्रों ने अक्षत कन्या के पुनर्दान और अन्य विधवाओं (जिनका पति से शरीर सम्बन्ध हो चुका था ) के विवाह में अन्तर बतलाया है और प्रथम में पुनर्विवाह उचित और दूसरे में अनुचित ठहराया है । किन्तु कलिवर्ज्य वचनों ने दोनों को वर्जित माना है ।
(५) अन्तर्जातीय विवाह -- इस पर हमने इस ग्रन्थ के खंड २, अध्याय ६ में लिख दिया है। यह कलिवर्ज्य है । (६) सगोत्र कन्या या मातृसपिण्ड कन्या ( यथा मामा की पुत्री) से विवाह कलिवर्ज्य है । देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अ०६, जहाँ इस विषय में विस्तारपूर्वक कहा गया है। कलिवर्ज्य होते हुए भी मामा की पुत्री से विवाह बहुत-सी जातियों में प्रचलित रहा है। नागार्जुन कोण्डा (३री शताब्दी ई० के उपरान्त) के अभिलेख में आया है कि शान्तमूल के पुत्र वीरपुरुषदत्त ने अपने मामा को तीन पुत्रियों से विवाह किया (एपि० इन०, जिल्द २०, पृ० १ ) | (७) आततायी रूप में उपस्थित ब्राह्मण की हत्या कलिवर्ज्य है । देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अ० ३ एवं
अ०६ ।
(८) पिता और पुत्र के विवाद में साक्ष्य देनेवालों को अर्थदण्ड देना कलिवर्ज्य है । प्राचीन भारत में साधारणत: पति-पत्नी एवं पिता-पुत्रों के विवाद को यथासम्भव बढ़ने नहीं दिया जाता था । 'मत्स्यपुराण' के काल में सम्भवतः यह कलिवज्यों में नहीं गिना जाता था ।
(६) तीन दिनों तक भूखे रहने पर नीच प्रवृत्ति वालों (शूद्रों से भी ) से अन्न ग्रहण ( या चुराना) ब्राह्मण के लिए कलिवर्ज्य है । गौतम ( १८।२८ - २६ ) ; मनु ( ११।१६) एवं याज्ञ० (३,४३ ) ने इस विषय में छूट दी थी । प्राचीन काल में भूखे रहने पर ब्राह्मण को छोटी-मोटी चोरी करके खा लेने पर छूट मिली थी, किन्तु कालान्तर में ऐसा करना वर्जित हो गया ।
(१०) प्रायश्चित्त कर लेने पर भी समुद्र यात्रा करनेवाले ब्राह्मण से सम्बन्ध करना कलिवर्ज्य है, प्रायश्चित्त करने पर व्यक्ति पाप मुक्त तो हो जाता है, किन्तु इस नियम के आधार पर वह लोगों से मिलने-जुलने के लिए अयोग्य ठहरा दिया गया है । 'बौधायनधर्मसूत्र' (१।१।२२ ) ने समुद्र-संयान ( समुद्र यात्रा ) को निन्द्य माना है और उसे महापातकों में सर्वोपरि स्थान दिया है ( २।१।५१ ) । मनु ने समुद्र यात्रा से लौटे ब्राह्मण को श्राद्ध में निमन्त्रित होने के लिए अयोग्य ठहराया है ( ३।१५८), किन्तु उन्होंने यह नहीं कहा है कि ऐसा ब्राह्मण जातिच्युत हो जाता है या उसके साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं करना चाहिये । उन्होंने उसे केवल श्राद्ध के लिए अयोग्य सिद्ध किया है। ओशनस स्मृति
भी ऐसा ही कहा है । ब्राह्मण लोग समुद्र पार करके स्याम, कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा, वोनियो आदि देशों में जाते थे। राजा और व्यापारी गण भी वहां आते-जाते थे । देखिये बावेरू जातक (जिल्द ३, संख्या ३३६, फौस्बॉल), मिलिन्द पन्हो, राजतरंगिणी (४।५०३-५०६ ), मनु ( ८।१५७), याज्ञ० (२१३८), नारद (४।१७६) आदि । 'वायुपुराण' ( ४५।७८-८०) ने भारतवर्ष को नौ द्वीपों में विभाजित किया है, जिनमें प्रत्येक समुद्र से पृथक् है और वहां सरलता से नहीं जाया जा सकता। इन द्वीपों में जम्बूद्वीप भारत है और अन्य आठ द्वीप ये हैं- इन्द्र, कसेरु, ताम्रपर्णी, गभस्तिमान्, नाग, सौम्य ( स्याम ? ), गन्धर्व, वारुण (बोर्नियो ? ) । स्पष्ट है, पौराणिक भूगोल के अनुसार भारतवर्ष में आधुनिक भारत एवं बृहत्तर भारत सम्मिलित थे । यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों ने शूद्रों के लिए समुद्र यात्रा वर्जित नहीं मानी थी, किन्तु
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