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धर्मशास्त्र का इतिहास
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आज के शूद्र सम्भवतः अपने को अन्य जातियों के समान उच्च घोषित करने के लिए अपने लिए भी
मानते हैं ।
(११) सत्र -- सत्र यज्ञ-सम्बन्धी कालों से सम्बन्धित हैं । पहले कुछ यज्ञ १२ दिनों वर्ष भर, १२ वर्षों या उससे भी अधिक अवधियों तक चलते रहते थे । उन्हें केवल ब्राह्मण लोग ही करते थे (जैमिनि ६।६।१६-२३ ) । शबर के मत से सत्रों के आरम्भकर्ता को १७ वर्षों से कम का तथा २४ वर्षों से अधिक का नहीं होना चाहिये । सत्र करनेवालों में सभी लोग (चाहे वे यजमान हों या पुरोहित हों) याज्ञिक (यजमान) माने जाते थे । देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय ३५, जहां सत्रों का वर्णन है। सत्तों के कलिवज्यं होने का कारण यह है कि उनमें बहुत समय, धन आदि लगता था और लोग परिश्रम-साध्य वैदिक यज्ञों के स्थान पर सरल कृत्य करना अच्छा समझने लगे थे ।
समुद्र यात्रा वर्जित
(१२) कमण्डलु-धारण — बौधायन (१1४ ) ने मिट्टी या काठ के जलपूर्णं पात्रों के विषय में कई सूत्र दिये हैं । प्रत्येक स्नातक को शौच (शुद्धि) के लिए अपने पास जलपूर्ण पात्र रखना पड़ता था । उसे उस पात्र को जल से धोना या हाथ से रगड़ना पड़ता था । ऐसा करना पर्यग्निकरण ( शुद्धि के लिए अग्नि के चारों ओर घुमाने या तपाने) के समान माना जाता था । स्नातक को बिना पात्र या कमण्डलु लिये किसी के घर या ग्राम या यात्रा में जाना aftar | देखिये वसिष्ठ ( १२।१४ - १७ ), मनु (४।३६ ) एवं याज्ञ ० ( १।१३३), जहाँ इसके विषय में व्यवस्थाएँ दी गयी हैं । विश्वरूप ने व्याख्या की है कि स्नातक इसे स्वयं नहीं भी धारण कर सकता है, उसके लिए कोई अन्य भ उसे लेकर चल सकता है । वास्तव में, उसे ढोना परिश्रम-साध्य एवं अस्वास्थ्यकर था, अतः ऐसा करना क्रमशः अव्यवहार्य हो गया । इसी से यह कलिवज्र्ज्यं हो गया ।
(१३) महाप्रस्थान-यात्रा - - ' बृहन्नारदीय पुराण' (पूर्वार्ध २४।१६) ने भी इसे वर्जित माना है । मनु ( ५।३२) एवं याज्ञ० ० (३।३५) का कहना है कि वानप्रस्थाश्रमी जब किसी असाध्य रोग से पीड़ित हो जाता था और अपने आश्रम के कर्तव्य का पालन नहीं कर सकता था, तो उस दशा में उसे उत्तर-पश्चिम दिशा में महाप्रस्थान कर देने की अनुमति प्राप्त थी। इस प्रस्थान में व्यक्ति तब तक चला जाता था जब तक कि वह थककर गिर न जाय और फिर न उठ सके । इसी प्रकार ब्रह्म-हत्या के अपराधी को धनुर्धरों के बाणों से विद्ध होकर मर जाने या अपने को अग्नि में झोंक देने की अनुमति प्राप्त थी । 'अपरार्क' ( पृ० ८७७-८७६) ने आदिपुराण को उद्धृत कर कहा है कि यदि कोई व्यक्ति, जो असा रोग से पीड़ित होने के कारण हिमालय की ओर महाप्रस्थान यात्रा करता है या अग्नि प्रवेश द्वारा आत्महत्या करता है। या किसी प्रपात से गिरकर अपने को मार डालता है तो वह पाप नहीं करता, प्रत्युत स्वर्ग को जाता है। 'आदिपुराण' (या आदित्यपुराण) एक स्थान पर महाप्रस्थान यात्रा की प्रशंसा करता है तो दूसरे स्थान पर उसे कलिवर्ज्य मानता है । यह विचित्र सी बात है । कलिवर्ज्यं विनिर्णय ने इस विषय में पाण्डवों की महाप्रस्थान यात्रा का उल्लेख किया है।
(१४) गोसव नामक यज्ञ में गोवध कलिवर्ज्य है । प्राचीन काल में बहुत-से अवसरों पर गोवध होता था । अग्निष्टोम की उदयनीया इष्टि के अन्त में गाय (अनुबन्ध्या) की बलि दी जाती थी । मधुपर्क में, जो किसी सम्मानित अतिथि को दिया जाता था, एक गाय या तो काटी जाती थी या अतिथि की इच्छा के अनुसार स्वतन्त्र कर दी जाती थी । देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अ० १० । तीन या चार अष्टका श्राद्धों में से किसी में एक गाय काटने की व्यवस्था थी ( देखिये खादिरगृह्यसूत्र ३।४।१; गोभिलगृह्यसूत्र ३।१०।१६ ) | आप ० ध० सू० (२/७/१६ । २५ ) का कथन है कि यदि श्राद्ध में गाय का मांस दिया जाय तो पितर एक वर्ष तक तृप्त रहते हैं। प्राचीन काल में गोसव या गोमेध नामक यज्ञ होता था, जो एक ऐसा उवथ्य था जिसकी दक्षिणा दस सहस्र गायों के रूप में थी और जो कुछ लोगों के मत से केवल वैश्य द्वारा ही सम्पादित होता था ( कात्यायन श्रौतसूत्र २२।११।३- ८ ) । शूलगव नामक कृत्य में आहुति देने के लिए एक बैल काटा जाता था ( देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अ० २४ ) । कालान्तर में मांस खाना बुरा माना जाने लगा,
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