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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास के स्वभाव) युग-युग में उसी प्रकार परिवर्तित होते हैं जिस प्रकार ऋतु पर ऋतु। इससे प्रकट होता है कि उन्होंने यह नहीं माना कि आचार जो एक युग में प्रचलित हैं, दूसरे में वजित ठहराये गये हैं। विज्ञानेश्वर ने एक श्लोक उद्धृत किया है जिसमें नियोग प्रथा, ज्येष्ठ पुत्र को विशिष्ट भाग देना एवं यज्ञ में गोहत्या कलियुग में निन्द्य एवं वजित माने गये हैं। स्मतिचं ने क्रतु को उद्धृत किया है जो कलियुग में चार कृत्यों को वर्जित मानता है, यथा नियोग, विधवा विवाह,यज्ञ में गोवध तथा कमण्डलु-धारण । नारदीय-महापुराण में कलिवयं के विषय में चार श्लोक हैं जिन में पूर्वप्रचलित कुछ कृत्य कलियग में वजित माने गये हैं, यथा समुद्रयात्रा, कमण्डलु-धारण, अपने से नीच जाति की कन्या से विवाह, नियोग, मधपर्क में पशु-हनन, श्राद्ध में मांसदान, वानप्रस्थाश्रम, विवाहित अक्षत-योनि कन्या का पुनर्विवाह, नैष्ठिक ब्रह्मचर्य, नरमेध, अश्वमेध,महाप्रस्थान गमन, गोवध ।१८'अपरार्क' (पृ०६८) ने ब्रह्मपुराण को उद्धृत कर विधवा-विवाह, नियोग स्त्री-स्वातन्त्र्य को कलियुग में इसलिए वजित माना है कि मनुष्य इस युग में पापी होते हैं । 'अपरार्क' (पृ० २३३) ने पुनः किसी स्मृति (जिसका नाम नहीं दिया गया है) को उद्धृत कर निम्न कृत्य वजित ठहराये हैं-यज्ञ में गोवध, नियोग (देवर द्वारा), सत्रों का सम्पादन, कमण्डलु-धारण, सौत्रामणी में मद्य-पान, परमहंस नामक संन्यासी होना । अन्य पाँच वजित कृत्य ये हैं--नरमेध, गोवध, कमण्डलु-धारण, नियोग एवं अक्षत-कन्या का पुनर्दान । 'अपरार्क' (प०२३३) ने 'मार्कण्डेय पुराण' को उद्धृत कर मधुपर्क में गौ के स्थान पर स्वर्णपात्र की व्यवस्था दी है और कहा है कि भग ने कलि में पशु-यज्ञ को वजित माना है। स्मृतिच० (१, पृ० १२)ने एक पुराण का उद्धरण दिया है--विधवा-विवाह, ज्येष्ठांश, गोवध, नियोग एवं कमण्डलु-धारण, ये पांच कलि में वजित हैं । हेमाद्रि एवं सह्याद्रि-खण्ड का कथन है--'अग्निहो गवालम्भ (गोवध), संन्यास, पलपैतृक (श्राद्ध में मांसदान), देवर से पुनोत्पत्ति कलि में वजित है।' और देखिये 'स्मृतिमुक्ताफल' (वर्णाश्रम, पृ० १७६, यतिधर्मसंग्रह, पृ० २)। हेमाद्रि ने दानखण्ड में गरुडपुराण को उद्धृत कर निम्न सात बातों को कलि में जित ठहराया है--अश्वमेध, गोसव, नरमेध, राजसूय, अक्षत-कन्या का पुनर्दान, कमण्डलु-धारण एवं देवर से पुत्रोत्पत्ति । स्मृत्यर्थसार(पृ० २) ने बिना किसी ग्रन्थ का हवाला दिये २६ कलिवर्यों का उल्लेख किया है। 'स्मृतिचन्द्रि का',हेमाद्रि के'चतुर्वर्गचिन्तामणि' (३, भाग २, पृ० ६६६), पराशरमाधवीय' (१, भाग १, पृ.१०३-१३७), 'मदनपारिजात' (पृ० १५-१६), 'मदनरत्न' (समयोद्योत), उद्वाहतत्त्व (पृ० ११२), 'समयमयूख', मित्र मिश्र के 'समयप्रकाश' (प० २६१-२६३), 'निर्णयसिन्धु' (३, पूर्वार्ध, अन्त में), भट्टोजि (चतुर्विशतिमत), स्मृतिमुक्ताफल' (वर्णाश्रम, पृ० १३),'स्मृतिकौस्तुभ', 'धर्मसिन्धु' (१० ३५७-३५८) तथा अन्य ग्रन्थों ने किसी पुराण (कुछ ने आदित्यपुराण का नाम दिया है) के श्लोकों को उद्धृत कर ५० कलिवों के नाम दिये हैं। नीलकण्ठ (१७वीं शताब्दी का पूर्वार्ध) के बड़े भाई दामोदर द्वारा कृत कलिवयं विनिर्णय या कलिवयंनिर्णय में बहुत-सी बातें वर्णित हैं और इसने 'आदित्यपुराण', 'ब्रह्मपुराण' आदि को उद्धत किया है। ___ ऊपर जिन कलिवज्यों की ओर संकेत किया गया है वे सुव्यवस्थित ढंग से नहीं रखे गये हैं। हम सर्वप्रथम यहाँ उन कलिवर्यों की चर्चा करेंगे जो व्यवहार (कानून) से सम्बन्धित हैं, इसके उपरान्त अन्यों का वर्णन क्रमानुसार होगा और अन्त में उनका वर्णन होगा जो उद्धरणों में नहीं पाये जाते । (१) ज्येष्ठांश, उद्धार या उद्धार-विभाग--ज्येष्ठ पुत्र को जब सम्पूर्ण पैतृक सम्पत्ति या कुछ विशिष्ट अंश दे दिया जाता है तो उसको ज्येष्ठांश या उद्धार या उद्धार-विभाग की संज्ञा मिलती है, यह कलि में वर्त्य है । देखिये इस खंड का अध्याय २७ । १८. नारदीय महापुराण (पूर्वाधं, २४।१३-१६) । और देखिये उद्वाहतत्व (पृ० ११२); निर्णयसिन्धु (पृ० ३६७); स्मृत्यर्थसार(पृ० २)एवं मदनपारिजात (पृ० १६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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