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कलिवयं विषयों का प्रचलन
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है। पुराणों में चारो युग कई बार व्यतीत होते और आरम्भ होते दिखाये गये हैं, अतः कल्कि का अवतार अतीत एवं भविष्य दोनों कालों में वणित है । 'कल्किपुराण' (१।२।३३ एवं १।३।३२-३३) का कहना है कि कल्कि माहिष्मती के राजा विशाखयूप के समकालीन थे और वायु० (६६।३१२-३१४), मत्स्य० (३७२।४) एवं विष्णु० (४।२४) का कथन है कि विशाखयूप प्रद्योत वंश का तीसरा राजा था। 'कल्किपुराण' ने कल्कि के विषय में अतीत काल का कई बार प्रयोग किया है किन्तु आरम्भ में (१।१०) वह भविष्य के लिए कहा गया है । एक मनोरंजक बात जयराम कृत पर्णाल पर्वत-ग्रहणाख्यान (१६७३ ई०) में बीजापुरी सेना के सेनापति बहलोल खान द्वारा वजीर खवास खाँ से कहलायी गयी है जो यह है--"हिन्दू शास्त्रों में कुछ लोगों का कहना है कि विष्णु के दसवें अवतार कल्कि का प्रादुर्भाव होगा जो यवनों का नाश करेंगे। शिवाजी उस कल्कि के अग्रदूत के रूप में आ गये हैं।"
यद्यपि पुराणों ने कलियुग के नैतिक और भौतिक पतन के विषय में विस्तारपूर्वक निन्दा के शब्द कहे हैं, किन्तु उन्होंने कहीं भी कलियुग में वजित विषयों (कर्मों) के बारे में कुछ नहीं संकेत किया। अब हमें यह देखना है कि 'कलिवयं' के विषय को कब प्रमुखता प्राप्त हुई और वे कौन-सी बातें हैं जिन्हें पहले यगों में जित नहीं माना गया था और जो कालान्तर में निन्द्य एवं वजित ठहरायी गयीं।
__आप०३० सू० (२।६।१४।६-१०)ने पैतृक सम्पत्ति को संपूर्ण रूप में या अधिकांश रूप में ज्येष्ठ पुत्र को देना शास्त्र विरुद्ध माना है । इसने दूसरे स्थान (२।१०।२७।२-६) पर कुछ अन्य लोगों के मत की ओर संकेत करते हुए कि स्त्री विवाहित होने पर वर के संपूर्ण कुटुम्ब को दे दी जाती है, नियोग-प्रथा को निन्द्य घोषित किया है। ये दोनों आचार(उद्धार या ज्येष्ठ पुत्र को भाग देना एवं नियोग) कलिवर्ण्य के अन्तर्गत आते हैं। अपरार्क' ने बृहस्पति को उद्धृत कर उन आचारों की ओर संकेत किया है जो प्रारम्भिक स्मृतियों में प्रतिपादित किन्तु कलियुग में वजित मान लिये गये हैं। यथा नियोग एवं कतिपय गौण पुत्र द्वापर एवं कलियुगों में मनुष्यों की आध्यात्मिक शक्ति के ह्रास के कारण असम्भव ठहरा दिये गये हैं । 'अपरार्क' (७३६)एवं दत्तकमीमांसा ने शौनक का हवाला देकर कहा है कि औरस या दत्तक पुत्र के अतिरिक्त अन्य पुत्रों को कलियुग में वर्जित माना गया है । प्रजापति (१५१) ने कहा है कि श्राद्धों में मांस एवं मद्य की प्राचीन प्रथा अब कलियुग में वजित ठहरा दी गयी है । व्यास (निर्णयसिन्धु में उद्धृत) एवं अन्य ग्रंथों ने कलियुग के ४४०० वर्षों के उपरांत अग्न्याधान एवं सन्यास ग्रहण करना वर्जित माना है । १६ लघु-आश्वलायनस्मृति (२१।१४-१५) का कथन है कि कुण्ड एवं गोलक नामक पुत्र जो पहले युगों में स्वीकृत थे और जिनका संस्कार किया जाता था, कलियुग में वजित हैं । विश्वरूप एवं मेघातिथि ने कलिवर्ण्य के विषय में एक भी उद्धरण नहीं दिया है, यह विचारणीय है । अन्य पश्चात्कालीन टीकाकारों ने ऐसा कहा है कि वेदाध्ययन के लिए अशुचिता की अवधियों को कम करना कलि में वर्जित है । मेधातिथि (मनु ११२) ने कुछ स्मृतियों का मत नियोग एवं उद्धार विभाग के विषय में केवल अतीत युगों के लिए ही समीचीन ठहराया है, क्योंकि स्मृतियाँ विशिष्ट युगों तक ही अपने को बांधती हैं (मनु १।८५); किन्तु उन्होंने इस मत काखण्डन किया है और मनु की व्याख्या करते हुए कहा है कि धर्म (गुण या वस्तुओं
१७. अतएव कलौ निवर्तन्ते इत्यनुवृत्तौ शौनकेनोक्तम्-दत्तौरसेतरेषां तु पुत्रत्वेन परिग्रहः-इति । अपरार्क पृ० ७३६ । मखमप्यमृतं श्राद्ध कालौ तत्तु विवर्जयेत् । मांसान्यपि हि सर्वाणि युगवर्मक्रमाद् मवेत् ॥ प्रजापति (१५१)। चत्वार्यम्वसहस्राणि चत्वार्यम्दशतानि च । कलेर्यदा गमिष्यन्ति तदा त्रेतापरिग्रहः । सन्यासस्तु न कर्तव्यो ब्राह्मणेन विजानता ॥ चतुर्विशतिमत (पृ० ५५ को टीका में मट्टोजि दीक्षित द्वारा उद्धृत)। और देखिये इस ग्रंथ का खड २, अ० २८।
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