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धर्मशास्त्र का इतिहास
के अंत तक जब कि संवर्त नामक बादल एवं अग्नियाँ उभड़ेंगी।" ६ देखिये कार्पस इंस्क्रिप्शनम् इंण्डिकेरम्, जिल्द 1, पृ० ८, १०, ३०-३३ । इससे प्रकट होता है कि कल्प ( काल की वह लम्बी अवधि जिसके अंत में विश्व का प्रलय होत है) की भावना, जो युगों के सिद्धान्त का एक अंश है, ईसा के पूर्व तीसरी शताब्दी में उत्पन्न हो चुकी थी । रुद्रदामन् ( १५० ई०) के जूनागढ़ अभिलेख में आया है- 'वायु जिसका वेग युग के निधन (अंत) के सदृश घोर ( भयानक ) था' देखिये एपिफिया इण्डिका, जिल्द ८, पृ० ३६ एवं ४३ । पल्लव राजाओं (तीसरी या चौथी ई०) के आरम्भिक शिलालेखों में वे 'कलियुग के बुरे प्रभावों के कारण गर्त में पड़े धर्म को निकालने में सदैव तत्पर' कहे गये हैं ( कलियुग - दोषावसन्नधर्मोद्धरण नित्य सन्नद्धस्य ) । गुप्तकाल (४१५-१६ ई०) के ६६ वें वर्ष के एक अभिलेख में ध्रुवशर्मा को कृत युग के सद्धर्म का पालक कहा गया है। और देखिये गुप्ताभिलेख संख्या ५५, पृ० २३७ एवं २४० जहाँ कृत युग का वर्णन है और तालगुंड अभिलेख (एपि० इन्डि०, जिल्द ८, पृ० ३४) जहाँ कलियुग की ओर संकेत है । पश्चात्कालीन अभिलेखों का हवाला देना नितान्त आवश्यक नहीं है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि युगों और कल्पों के सिद्धान्त का उदय ईसा पूर्व चौथी या तीसरी शताब्दी में हो गया था और ईसा के उपरान्त प्रथम शताब्दी के आते-आते उनका पूर्ण विकास हो गया। पूर्ण विकास के लिए लम्बी अवधि आवश्यक है। उदाहरणार्थ, ब्रह्मगुप्त (ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त ११।१० ) का कथन है कि युगों, मनुओं एवं कल्पों का सिद्धान्त जो आर्यभट द्वारा प्रतिपादित था, स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त से भिन्न था।
यदि हम संस्कृत-साहित्य का पर्यवलोकन करें तो उपर्युक्त निष्कर्ष की सिद्धि हो जाती है । महाभारत ( वनपर्व के अध्याय १४६ एवं १८८, शान्तिपर्व के अध्याय ६६, २३१-२३२), मनु ( अ० १), विष्णु ध० सू० (१६।१-२१) पुराणों (यथा विष्णु १३, ६।३; मार्कण्डेय ४६ ; ब्रह्म २३६ - २३० मत्स्य १४२ - १४४ ) एवं ब्रह्मगुप्त जैसे ज्योति - षियों के ग्रंथों में युगों एवं मन्वन्तरों के सिद्धान्त की चर्चा संक्षेप में निम्न रूप में मिलती है -- कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग तथा संध्या (जो प्रत्येक युग के पूर्व का काल है) एवं संध्यांश (जो प्रत्येक युग के उपरान्त का काल है) मिलकर १२,००० वर्ष होते हैं, अर्थात् कृत, त्रेता, द्वापर और कलियुग क्रम से ४,०००, ३,००० २,०००, १,००० वर्षों की अवधि के होते हैं तथा संध्या एवं संध्यांश क्रम से ४००, ३००, २००, १०० वर्षों की अवधियों के द्योतक हैं ( अर्थात् कृत की संध्या ४०० वाली एवं संध्यांश ४०० वर्ष वाला आदि-आदि ) । किन्तु ये दिव्य वर्ष हैं । प्रत्येक दिव्य वर्ष ३६० मानवीय वर्षों के बराबर होता है । अतः चारों युगों के मानव वर्षों की जानकारी के लिए हमें १२,००० में ३६० का गुणा करना होगा ( अर्थात, वास्तविक संख्या ४३,२०,००० है ) । कृतयुग अपनी संध्या एवं संध्यांश के साथ १७,२८,००० मानवीय वर्षों के बराबर होता है, त्रेता १२,६६,००० वर्षों के बराबर, द्वापर ८,६४,००० वर्षों के बराबर और कलियुग ४,३२,००० वर्षों के बराबर होता है। ये चारों युग मिलाकर कभी-कभी चतुर्युग ( मनु १।७१ ) केवल युग ( वनपर्व १४८ | २७ शान्ति प० २३२।२६ ) के नाम से पुकारे गये हैं; इन चारों युगों के १००० वर्ष ब्रह्मा के एक दिन के बराबर होते हैं जिसे कल्प की संज्ञा दी गयी है। यही बात ब्रह्मा की रात्रि की अवधि के बारे में भी है । कल्प के अन्त में विश्व ब्रह्मा में लीन हो जाता है जिसे प्रलय कहा जाता है और ब्रह्मा की रात्रि के अन्त में विश्व का पुनः उदय होता है। ब्रह्मा के एक दिन में १४ मनु होते हैं । अतएव प्रत्येक मन्वन्तर लगभग ७१ चतुर्युगों ( १०००÷ १४) के बराबर होता है। ब्रह्मा की आयु सौ वर्ष है जिसका आधा समाप्त हो गया है, अतः वर्तमान समय
६. मिलाइये 'ततः संवर्तको वह्निर्वायुना सह भारत। लोकमाविशते पूर्वमादित्यैरुपशोषितम् ॥ वनपर्व (१८८६६) ।
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