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युगों की गणना और स्वभाव
६८५ ब्रह्मा के जीवन का अर्धांश अथवा द्वितीय परार्ध कहा जाता है और आज का चलता हुआ कल्प वाराह कहा जाता है ।
उपर्युक्त विवेचन से प्रकट होता है कि पुराणों के मत से विश्व की उत्पत्ति और उसका प्रलय कई बार हुआ है और इसी प्रकार कई मन्वन्तर ( मनु० १८० ) हुए हैं। अपनी विशेषताओं के आधार पर चारों युग एक दूसरे से भिन्न हैं । कृत इसलिए कहा जाता है कि इस युग में प्रत्येक कार्य पूर्ण ( कृत) कर दिया जाता है और कुछ छोड़ा नहीं जाता।" चारों युगों के प्रतीकात्मक रंग हैं श्वेत, पीत, लोहित एवं कृष्ण ( वनपर्व १८६ । ३२ ) । कृत में धर्म पूर्णता के साथ प्रचलित रहता है और चारों पैरों पर खड़ा रहता है (मनु ८।१६ एवं वनपर्व १६०१६ आदि में धर्म को आलंकारिक रूप में वृष (बैल) कहा गया है ) ' ' और यह आगे के युगों में चौथाई रूप में पतन को इस प्रकार प्राप्त होता है (मनु १1८१-८२ = शान्ति २३२।२३-२४) कि कलि में केवल एक चौथाई ( अर्थात् केवल एक पैर ) बच रहता है और तीन चौथाई (अर्थात् तीन पैरों) में अधर्म समाविष्ट हो जाता है। कृत में सब लोग रोगों से मुक्त रहते हैं, अभिलषित फल प्राप्त करते हैं और मानव-जीवन चार सौ वर्षों के बराबर होता है । कृत युग की ये विशेषताएँ अन्य तीन युगों में एक चौथाई रूप से घटती जाती हैं ( मनु १।८३ = शान्ति २३२।२५ ) | चारों युगों के धर्म भिन्न होते हैं; कृत में तप परम धर्म था, वेता में दार्शनिक ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलि में केवल दान ( मनु १।८५-८६ = पराशर १।२२-२३ = शान्ति ० २३२।२७-२८ ) ।
कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग के धर्मों की उद्घोषणा क्रम से मनु, गौतम, शंख-लिखित एवं पराशर ने की है (पराशर स्मृति १।२४) । कृत में केवल एक वर्ण था किन्तु कलि के अन्त में सभी शूद्र हो जायँगे (ब्रह्म० २२६ । ५२, मत्स्य० १४४।७८)। पराशर (१।२५-२८) ने चारों युगों की विशेषताओं का वर्णन किया है जिसे यहां हम स्थानाभाव से नहीं दे रहे हैं । मनु ( ६ । ३०१-३०२ ) के मत से युग काल के संकीर्ण अथवा बँधे - बँधाये भाग नहीं हैं । राजा अपने आचरण द्वारा एक युग की विशेषताओं को दूसरे में प्रवाहित कर सकता है । 'मेधातिथि' (मनु ६ । ३०१ ) ने व्याख्या की है कि राजा को इस गलतफहमी में नहीं पड़ना चाहिये कि कलि-काल कोई ऐतिहासिक भाग है और वह इसलिए कलिया कृत नहीं हो सकता, बल्कि बात तो यह है कि राजा अपने आचरण द्वारा प्रजाजनों में कतिपय युगों की परिस्थितियों को उत्पन्न कर सकता है ।
वनपर्व (१४६।११-३८), वायु० (३२ एवं ५७-५८), लिंग० (३६), मत्स्य ० (१४२-१४४), गरुड़० ( २२३), नारदीय ० ( पूर्वार्ध ४१ ) एवं अन्य पुराणों में चारों युगों के स्वभाव का वर्णन है जिसे हम यहाँ स्थानाभाव के कारण उल्लिखित नहीं कर सकते । किन्तु महाभारत एवं पुराणों में वर्णित कलियुग के स्वभाव के विषय की जानकारी आवश्यक है । वनपर्व (अध्याय १८८ एवं १६० ), युगपुराण (गर्गसंहिता का अ० ), हरिवंश ( भविष्य ० अ० ३॥५), ब्रह्म० (२२६-२३०), वायु० (५८ एवं ६६ । ३६१-४२८), मत्स्य ० ( १४४१३२-४७), कूर्म ० ( १1३०), विष्णु पु० (६।१।२), भागवत (१२।२), ब्रह्माण्ड (२।३१), नारदीय (पूर्वार्ध ४१, २१-८८ ), लिंग (४०), नृसिंह ( ५४ | ११-४६) एवं अन्य ग्रंथों ने अधिकांशतः समान श्लोकों में कलियुग के विषय में बहुत ही निराशाजनक, अन्धकारपूर्ण एवं अत्यन्त हृदयस्पर्शी बातें कही हैं ।
प्रमुख बातें ये हैं कि कलियुग में शूद्र एवं म्लेच्छ राजाओं का राज्य होगा, नास्तिक सम्प्रदायों की प्रधानता
१०. कृतमेव न कर्त्तव्यं तस्मिन काले युगोत्तमे । वनपर्व ( १४६ । ११)।
११. कृते चतुष्पात्सकलो निर्व्याजोपाधिर्वाजितः । वृषः प्रतिष्ठतो धर्मो मनुष्ये भरतर्षभ ॥ वनपर्व ( १६० ६ ) |
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