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कृत, त्रेता, युग आदि के कालवाचक अर्थ की खोज
कृत क्षेपण में परिगणित हो जाते हैं, उसी प्रकार उस (रैक्व) के पास मनुष्यों द्वारा सम्पादित अच्छे कर्तव्यों का प्रभाव चला आता है।" यहाँ शंकराचार्य ने व्याख्या की है कि ४ चिह्नों वाला क्षेपण कृत है और ३, २ या १ चिह्नों वाले उत्क्षेपण क्रमशः त्रेता, द्वापर और कलि कहे जाते हैं । मुंडकोपनिषद् (१।२।१) ने नेता की ओर संकेत किया है, “यही सत्य है; वे यज्ञ संबंधी कृत्य जिन्हें ऋषियों ने मंत्रों में देखा, त्रेता में कई प्रकार से सम्पादित हुए हैं।५ अन्तिम वाक्य की व्याख्या शंकराचार्य ने दो प्रकार से की है, जिसमें प्रथम यह है-होता, अध्वर्यु एवं उद्गाता नामक तीन पुरोहितों के कर्मों के रूप में जो निर्देशित है, वह तीनों वेदों पर आधारित है, और विकल्प से त्रेता युग की ओर संकेत करता है। इस विवेचन से यह प्रकट होता है कि वैदिक साहित्य के अन्तिम चरणों तक अर्थात् उपनिषदों तक कृत, त्रेता एवं कलि द्यूत-क्रीडा में पासा फेंकने के अर्थ में प्रयुक्त होते थे और यह सन्देहात्मक है कि वे विश्व के विभिन्न युगों के द्योतक थे । यहाँ तक कि महाभारत में भी कृत और द्वापर शब्द उसी अर्थ में लिये जाते थे (विराटपर्व ५०।२४)। गोपथ ब्राह्मण (१८२८) में द्वापर युग के आरम्भ की ओर संकेत है।
वेदांगज्योतिष में भी 'युग' शब्द पाँच वर्षों की अवधि का द्योतक है (पञ्चसंवत्सरमयं यगाध्यक्ष प्रजापतिम्)। प्राचीन पितामहसिद्धान्त के मत से वराहमिहिर की पंचसिद्धान्तिका (१२।१) में 'युग' का अर्थ होता है सूर्य और चन्द्रमा के पाँच वर्ष । रविशशिनोः पञ्च युगं वर्षाणि पितामहोपदिष्टानि)। यही अर्थ शान्तिपर्व (११।३८) में भी है। निरुक्त (१।२०) ने प्राचीन ऋषियों और पश्चात्कालीन ऋषियों में अन्तर इस प्रकार व्यक्त किया है--प्राचीन ऋषि साक्षात्कृतधर्मा(धर्म के प्रत्यक्षदर्शी) थे और उन्होंने असाक्षात्कृत धर्म वाले ऋषियों को शिक्षा द्वारा मंत्र ज्ञान दिया। किन्तु इसने न तो चारों युगों के सिद्धान्त का वर्णन किया है और न किसी प्रकार का संकेत ही किया है। गौतम (१। ३-४) एवं आप० ध० सू० (२।६।१३।७-६) ने स्पष्ट कहा है कि 'प्राचीन ऋषियों में धर्मोल्लंघन एवं साहस के कार्य देखे गये हैं, किन्तु आध्यात्मिक महत्ता के कारण वे पापी नहीं हो सके, किन्तु पश्चात्कालीन मनुष्य को आध्यात्मिक शक्तिदौर्बल्य के कारण वैसा नहीं करना चाहिये, नहीं तो वह कष्ट में पड़ जायगा।' यहाँ पर स्पष्टतः प्राचीन ऋषियों एवं पश्चात्कालीन ऋषियों के आध्यात्मिक गुणों के विषय में अन्तर बताया गया है, किन्तु चारों युगों के नामों अथवा उनके सिद्धान्त के विषय में कुछ भी नहीं कहा गया है। आप० ध० सू० (१।२।५।४) का कहना है कि आगे के मनुष्यों में नियमातिक्रमण के कारण ऋषि उत्पन्न नहीं होते। अतः ऐसा कहना सम्भवतः भ्रामक न सिद्ध होगा कि गौतम
के आरम्भिक धर्मसूत्रों के समय में भी युग-संबंधी सिद्धान्त का पूर्ण विकास नहीं हुआ था, यद्यपि दोनों ने यही कहा है कि वे पतन के युग में हैं और मंत्रद्रष्टा ऋषियों के उपरान्त वाले ऋषि लोग निकृष्ट हैं।
की सिद्धान्त-सम्बन्धी निकटतम सीमा के स्थापन में हमें राजाओं द्वारा उपस्थापित शिलालेख आदि सहायता देते हैं। अशोक के शिलालेख (संख्या ४,५) में जो कालसी और दो अन्य स्थानों के हैं, निम्न शब्द आये हैं-- 'आव कप' (यावत कल्पम्) तथा गिरनार वाले में 'आव सम्वर कप', जिसका अर्थ है "कल्प के अंत तक" या "कल्प
५. तदेतत्सत्यं मंत्रेषु कर्माणि कवयो यान्यपश्यंस्तानि त्रेतायां बहुधा संततानि । मुडकोप० (१।२।३) । ६. माघशुक्लप्रपन्नस्य पौषकृष्णसमापिनः । युगस्य पंचवर्षस्य कालज्ञानं प्रचक्षते । बेदांगज्योतिष (५)।
७. साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुस्तेऽसाक्षात्कृतधर्मम्य उपदेशेन मन्त्रान्सप्रादुः । निरुक्त (१।२०) । और देखिये वनपर्व (१८३-६७)।
८. तस्मादृषयोऽवरेषु न जायन्ते नियमातिकमात् । आप० ५० सू० (१।२।५४) ।
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