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________________ ६८२ धर्मशास्त्र का इतिहास लिए अयोग्य (बहिनों के लिए अयोग्य ठहराये गये) कार्य करेंगी। ऋग्वेद में कम से कम ३३ बार युग शब्द का प्रयोग हुआ है किन्तु इसका वास्तविक अर्थ कुछ अंशों में संदेहास्पद है। कुछ स्थानों पर इसका तात्पर्य 'जुआ (बैल जोतने का विशेष काष्ठ) है (ऋ० १०६०८, १०।१०१।३ एवं ४) । कतिपय स्थानों पर इसका सम्भवतः अर्थ है अल्प काल की अवधि (ऋ० ३।२६।३) । सामान्यतः इसका अर्थ है एक पीढ़ी (ऋ० १,६२।११, १।१०३।४, १।१२४।२, २।२।२, ३।३३।८, ५१५२।४) । ऋग्वेद (१।१५८।६) में 'दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान् दशमे युगे' में युग का सम्भवतः अर्थ है 'चार यापांच वर्षों की अवधि', जब कि ऋग्वेद (६।१५।८, ६।८।५, १०७२।२, १०६४।१२, १०६७।१) में इसका तात्पर्य है 'समय की एक लम्बी अवधि' । अथर्ववेद (८।२।२१) में युग का सम्भवतः अर्थ है कई सहस्र वर्षों का काल, दो युग दस सहस्र वर्ष से अधिक का काल कहा गया है (शतं तेऽयुतं हायनान् हे युगे त्रीणि चत्वारि क्रमः) । यहाँ पर चार युगों की ओर स्पष्ट संकेत है और यह भी परिलक्षित होता है कि युग एक लम्बे काल का द्योतक है । ऋग्वेद के मंत्रों में युग शब्द का जो भी अर्थ हो किन्तु वहाँ कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि नामक विख्यात युगों के नाम नहीं आये हैं। ऋग्वेद में उल्लिखित 'कृत' शब्द का अर्थ कदाचित् द्यूत में पासे या विभीतक के बीजों का सुन्दर उत्क्षेपण (फेंकना) है (ऋ० १०।३४।६ एवं १०॥४३॥५) । अथर्ववेद (७॥५२।२, ५, ६) में 'कृत' का यही अर्थ है । कलि ऋग्वेद के (८।६६।१५) मंत्र का लेखक है ('कालयो मा विभीतन' अर्थात हे कलि के वंशज, भय मत करो)। ऋ० (१०१३०८) में आया है कि अश्विनी ने बढ़े कलि का कायाकल्प कर दिया । और देखिये ऋग्वेद (१११२।१५)जहाँ ऐसा उल्लेख है कि कलि को अश्विनौ से एक पत्नी प्राप्त हुई।किन्तु कलि का पासे फेंकने वाला अर्थ ऋग्वेद से नहीं प्रकट होता ।अर्थववेद (७।११४१) में कलि का अर्थ पासे फेंकने के अर्थ में है। कृत, त्रेता, द्वापर एवं आस्कन्द नामक शब्द तै० सं० (४।३।३), वाज. सं० (३०।१८) एवं शत० प्रा०(१३।६।२।६-१०) में प्रयुक्त हुए हैं। पश्चात्कालीन साहित्य में कलि को तिष्य कहा गया है (यथा भीष्मपर्व १०१३ में) । तै० ब्रा० (३।४।१६) में 'आस्कन्द' के स्थान पर 'कलि' शब्द प्रयुक्त हुआ है । ३ ऊपर के सभी स्थानों में कृत और अन्य तीन शब्द द्यूत में उत्क्षेपण (फेंकने) के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। तना० (१३५१११) में '४ स्तोम (त्रिवृत, पंचदश, संप्तदश एवं एकविंश) कृत हैं और पाँच कलि हैं' ऐसा पढ़ते हैं । इससे प्रकट होता है कि कृत चार बार या चार के गुने के अर्थ में लिया जाता था और कलि उस फेंकने के अर्थ में लिया जाता था जब चार के भाग देने पर एक शेष रहता था । ऐतरेय ब्रा० ने कृत एवं अन्य तीन शब्दों का प्रयोग मानवक्रिया के अपेक्षाकृत अधिक उपादेय स्वरूपों के रूपक अर्थ में किया है--"सोया हुआ व्यक्ति कलि है, उठने के लिए सन्नद्ध होते समय वह द्वापर हो जाता है, जब उठता है तो नेता हो जाता है और जब इधर-उधर चलने लगता है तो कृत हो जाता है।"४ शतपथ ब्रा० (५।४।४।६) ने कलि को 'अभिभू' (हरानेवाला) कहा है और निर्देश किया है कि कलि वह पाँच का उत्क्षेपण है जो अन्यों को हरा देता है । 'छान्दोग्योपनिषद्' (४।१।४) में आया है--"जिस प्रकार(द्यूत खेल में) सभी नीचे के उत्क्षेपण २. इदमुग्राय बभ्रवे नमो यो अक्षेषु तनूवशी । घृतेन कलिं शिक्षामि स नो मृडातीदृशे ॥अथर्व० (७।११४।१)। अक्षराजाय कितव कृतायादिनवदर्श त्रेतायै कल्पिनं द्वापरायाधिकल्पिनमास्कन्दाय सभास्थाणुम् । वाजसनेयो संहिता (३०१८) । कृताय समाविनं त्रेताया आदिनवदर्श द्वापराय बहिःसवं कलये सभास्थाणुम् । तैत्तिरीय ब्राह्मण (३।४।१६)। ३. ये वै चत्वारः स्तोमाः कृतं तत् । अथ पञ्च कलिः सः । तस्माच्चतुष्टोमः । तै० ब्रा० (१।५।११)। ___४. कलिः शयानो भवति संजिहामस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन् ॥ ऐतरेय ब्राह्मण . (३३३३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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