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________________ स्थानीय आचार एवं अति-स्मति-सदाचार के पारस्परिक विरोध का समाधान के निवासियों के बीच यदि रीति सम्बन्धी विरोध उठ खड़े हों तो निर्णय परम्परागत रीतियों के आधार पर ही किया जाना चाहिये, किन्तु इन स्थानों के निवासियों एवं अन्य लोगों में मतभेद उत्पन्न हो जाये तो निर्णय शास्त्रों के मतानुकूल किया जाना चाहिये । अतः राजा को लोगों के विवादों को शास्त्र के अनुकूल निपटाना चाहिये, किन्तु शास्त्रवचनों के अभाव में उसे देश के दृष्ट (रीति) के अनुसार न्याय-निर्णय करना चाहिये । जो कुछ देश के लोगों की सम्मति से तय किया जाय, उसे राजा की मुद्रा द्वारा मुद्रित कर रक्षित करना चाहिये। इस प्रकार की परम्पराओं को उसी प्रकार मान्यता मिलनी चाहिये जो शास्त्र द्वारा निरूपित आदेशों को मिलती है और राजा को सावधानीपूर्वक उन पर विचार करके विवादों के विषयों में निर्णय करना चाहिये।” देखिये स्मृतिचंद्रिका (२, पृ० २६); परा० मा०(३।४१); अपरार्क (प० ५६६); व्य० प्र० (प०२१-२२) एवं व्य० नि० (प० १५-१६) । यहाँ पर कात्यायन प्रमख रूप से उन न्यायिक विवादों के विषय में कहते हैं जो देशों और कुलों के आचारों पर आधारित हैं किन्तु जिनके नियम की सामान्य प्रयोग सिद्धि भी है। उन्होंने यह भी कहा है कि कानूनों (व्यवहारों) में भेद उत्पन्न होने पर शास्त्र को प्रमुखता मिलती है। पितामह ने भी ग्राम,गोष्ठ, पुर, श्रेणी की रीतियों के विषय में ऐसी ही बात कही है और कहा है कि बृहस्पति का भी ऐसा मत है (स्मृतिचं० २, पृ० २६)। मनु (८।३)ने भी राजा को लोगों के विवाद-निर्णय में देश-दृष्ट हेतु (स्थानीय आचारों) एवं शास्त्र-दृष्ट (शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित नियमों) का सहारा लेने का आदेश दिया है। मेधातिथि ने मनु के इस कथन को टीका में स्थानीय आचारों से सम्बन्धित कुछ मनोरंजक दृष्टान्त उपस्थित किय हैं, दक्षिण के कुछ स्थानों में पुत्र हीन विधवा को न्यायकक्ष में बैठने के लिए एक वर्गाकार आसन मिलता है जहाँ उस पर न्यायिक कर्मचारियों द्वारा पासा फेंका जाता है और उसके उपरान्त उसे पति की सम्पत्ति प्राप्त होती है (देखिये ऋग्वेद १।२५।७ की व्याख्या में निरुक्त ३।५); उत्तर में यह रीति है कि जब कुछ लोग वर की ओर से विवाह के लिए वधु खोजने के लिए जाते हैं और कन्या के पिता के घर में भोजन कर लेते हैं तो इससे यह समझा जाता है कि मानों पिता ने उस वर को अपने दामाद के रूप में ग्रहग करने की स्वीकृति दे दी है। ये दोनों आचार अथवा व्यवहार किसी श्रुति अथवा स्मति के विरोध में नहीं हैं । मेधातिथि ने कुछ ऐसी स्थानीय रीतियों का वर्णन किया है जो स्मृतिविरोधी हैं, यथा--वसंत में जो अनाज दिया जाता है वह शरद में दूनी मात्रा में लिया जाता है, यह स्मृतियों द्वारा निर्धारित ब्याज की मात्रा के विरोध में पड़ता है। श्रुति, स्मति एवं सदाचार की पारस्परिक वरीयता के विषय में जो प्रश्न उपस्थित होता है, उसका समाधान सरल नहीं है, क्योंकि इस विषय में जो नियम प्रतिपादित हैं उनमें मतैक्य नहीं पाया जाता । मनु (२।६), वसिष्ठ (११४-५) एवं याज्ञ०(१७) ने धर्म के प्रमाणों के रूप में क्रम से श्रुति, स्मृति एवं सदाचार का उल्लेख किया है, इसी से 'मिताक्षरा' का कथन है कि "विरोध को स्थिति में तीनों में प्रत्येक के पूर्ववर्ती प्रमाण को अपेक्षाकृत अधिक वरीयता एवं अनुल्लंघनीयता प्राप्त है (एतेषां विरोध पूर्वपूर्वस्य बलोयस्त्वम्) । सभी स्मृतिकारों ने उन लोगों के लिए जो धर्म का ज्ञान करना चाहते हैं, श्रुति या वेद को सबसे अधिक प्रामाणिक मानने को कहा है (मनु २।१३ एवं याज्ञ० १।४०)। गौतम (१२५),मन (२०१४) एवं जाबालि ने घोषित किया है कि जब दो वैदिक वचनों में विरोध उत्पन्न हो तो विकल्प का सहारा लेना चाहिये । इस विषय में जो बहुत-सी बातें कही गयी हैं, हम स्थानाभाव से उन पर यहाँ विचार नहीं करेंगे । हाँ, कुछ ऐसे नियम हैं जो सामान्य होते हैं और कुछ ऐसे हैं जो विशिष्ट कहे जाते हैं, इसी से स्थान-स्थान पर एवं विशिष्ट-विशिष्ट परिस्थितियों में अर्थवाद का सहारा लेकर नये-नये निर्णय दिये गये हैं, यथा ब्रह्महत्या महापातक माना गया है (मनु ८।३८१) किन्तु आत्मरक्षा में ब्रह्महत्या करना पातक नहीं ठहराया गया है (मनु ८।३५०), गुरु की हत्या निषिद्ध है किन्तु आततायी गुरु की हत्या वजित नहीं मानी जाती। इस विषय में हम कुछ दृष्टान्त आगे देंगे, यहाँ इतना ही पर्याप्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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