SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६८ धर्मशास्त्र का इतिहास अथवा रीतियों का सम्मान करता है। विद्वान् ब्राह्मणों के व्यवहारों अथवा उनके द्वारा प्रयुक्त रीतियों के विषय में याज्ञ. (२।१८६) ने कहा है कि राजा को वेद-स्मृति-वचनों के विरोध में न आनेवाली ऐसी रीतियों को बलपूर्वक प्रतिष्ठा देनी चाहिये (यथा चरागाहों, नहरों, कूपों के निर्माण एवं मन्दिरों के रक्षण के विषय में तथा यात्रियों की सुख-सुविधा, शत्रुओं के साथ अश्वों के क्रय-विक्रय रप प्रतिबन्ध आदि के विषय में)। कौटिल्य ने व्यवस्था दी है कि राजा को धन-सम्पत्ति के उत्तराधिकार एवं विभाजन के विषय में देश, जाति, संघ या ग्राम के धर्म (नियम, परम्परा अथवा रीति) का पालन करना चाहिये । ८ देवल एवं बहत्पराशर (१०,पृ० २८१)में भी याज्ञ० (१।३४३) के समान ही एक श्लोक है। महाभारत का कथन है कि ऐसा कोई आचार अथवा व्यवहार या रीति नहीं हैं जो सब के लिए समान रूप से कल्याणकारी हो।' इससे यह प्रकट होता है कि राजा आचारों (व्यवहारों अथवा रीतियों) के प्रभेदों पर प्रतिबन्ध नहीं लगाते थे अर्थात उन्हें ज्यों के त्यों मान्य होने के लिए छोड़ देते थे। बृहस्पति ने राजा को देशों, जातियों और कुलों में प्रचलित पुरानी परम्पराओं को ज्यों की त्यों रहने देने की सम्मत्ति दी है और कहा है कि ऐसा न करने से प्रजाजनों में असंतोष पैदा होगा, क्रांति होगी, जिसके कारण धन-जन की हानि होगी। उन्होंने कुछ विलक्षण व्यवहारों और आचारों के उदाहरण दिये हैं, यथा--'दक्षिण देश के द्विज मातुलकन्या से विवाह करते हैं; मध्यदेश (हिमालय और विन्ध्य के मध्य का देश जो प्रयाग के पश्चिम और विनशन के पूर्व में है और जहाँ सरस्वती नदी विलीन हो जाती है, मनु २।२१) में कर्मकर एवं शिल्पी लोग गाय का मांस खाते हैं। पूर्व देशों के लोग (ब्राह्मण भी) मछली खाते हैं और उनकी स्त्रियाँ व्यभिचारिणी होती हैं। उत्तर की स्त्रियाँ मद्यपान करती हैं और वहाँ के पुरुष रजस्वला स्त्री को स्पर्श करते हैं। खस देश के लोग अपने भाई की विधवा को ग्रहण करते हैं; ऐसे लोग न तो दंड के अधिकारी हैं और न उन्हें प्रायश्चित्त करना पड़ता है, क्योंकि उनकी ऐसी रीतियाँ ही हैं।" कात्यायन ने देशों और कुलों के आचारों की परिभाषा दी है और बतलाया है कि कब और कैसे उन्हें कार्यान्वित करना चाहिये--'किसी देश का आचार वह है जो वहाँ प्रचलित हो, सार्वकालिक हो और श्रुति-स्मृति का विरोधी न हो। कूल-धर्म (कुलपरम्परा) वह है जोवंश-परम्परा से कुल में उसके सदस्यों द्वारा सम्यक् आचरण के रूप में पालित होता आया हो; राजा को इसे उसी प्रकार रक्षित करना चाहिये । एक ही देश या पत्तन (राजधानी), पुर, ग्राम आदि ८. देशस्य जात्याः संघस्य धर्मो ग्रामस्य वापि यः। उचितस्तस्य तेनैव वायधर्म प्रकल्पयेत् ।। अर्थशास्त्र (३७, पृ० १६५); अक्षपटलमध्यक्षः...निबंधपुस्तकस्थानं कारयेत् । तत्राधिकरणानां संख्या...देशपामजातिकुलसंघातानां धर्मव्यवहारचरित्रसंस्थानं...निबंधपुस्तकस्थं कारयेत् । अर्थशास्त्र (२७, पृ० ६२)। ६. यस्मिन्देशे पुरे ग्रामे त्रैविद्ये नगरेऽपि वा । यो यत्र विहितो धर्मस्तं धर्म न विचारयेत् ॥ देवल (स्मृतिच० १. पृ० १०)। १०. न हि सर्वहितः कश्चिवाचारः सम्प्रवर्तते। शान्तिपर्व (२६१।१७)। ११. देशजातिकुलानां च ये धर्मास्तत्प्रवर्तिताः । तथैव ते पालनीयाः प्रक्षुभ्यन्त्यन्यथा प्रजाः। जनापरक्तिर्भवति बलं कोशश्च नश्यति । उद्वाह्यते दाक्षिणात्यैर्मातुलस्य सुता द्विजः। मध्यदेशे कर्मकराः शिल्पिनश्च गवाशिनः । मत्स्यादाश्च नराः पूर्वे व्यभिचाररताः स्त्रियः । उत्तरे मद्यपा नार्यः स्पृश्या नृणां रजस्वलाः । खशजाताः प्रगृह्णन्ति भ्रातृमार्यामभर्तृकाम् । अनेन कर्मणा नेते प्रायश्चित्तदमाईकाः ॥ बृह० (स्मृतिच. १।१०; व्य०नि० पृ० १६; मदनरत्न; स्मृतिमुक्ताफल, वर्णाश्रम पृ० १३०, शुक्रनीति ४।५।४८-५२; व्य० मयूख पृ०७; व्य० प्र० पृ०२२; हरदत्त, आप० ध० सू० २।१०।२७।३) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy