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धर्मशास्त्र का इतिहास
हमने गत अध्याय में पूर्वमीमांसा द्वारा व्याख्यात उन नियमों की ओर संकेत कर दिया है जो श्रुति एवं स्मृति के नियमों के विरोध से सम्बन्धित हैं । जैमिनि ( ६।१।१३-१४) एवं शबर ने एक दृष्टान्त दिया है; यदि मनु ( ८|४१६ ) पर निर्भर होकर पूर्वपक्ष यह तर्क उपस्थित करे कि स्त्रियाँ सम्पत्ति नहीं पातीं, अतः उन्हें वैदिक यज्ञ नहीं करना चाहिये, तो वह श्रुतिविरोधी व्याख्या कही जायगी और स्त्रियों द्वारा उसे मान्यता नहीं प्राप्त हो सकती। इस विषय में स्मृतियों ने भी कुछ सामान्य नियम दिये हैं। लोगाक्षि एवं जाबालि ने प्रतिपादित किया है कि श्रुति एवं स्मृति के विरोध में पहली को अधिक मान्यता मिलती है और यदि विरोध न हो तो यह समझना चाहिये कि स्मृति का वह वचन श्रुतिसमर्थित है । 'मिताक्षरा' (याज्ञ० ३।४६ ) ने स्वीकार किया है कि वेदविहित बात स्मृतिविहित किसी विशिष्ट बात से बाधित नहीं की जा सकती । किन्तु उपर्युक्त श्रुतिमम्मत नियमों की वरीयता को प्रकट करनेवाले सामान्य वचनों के रहते हुए भी विश्व रूप, मेधातिथि एवं विज्ञानेश्वर के समान टीकाकारों को यह स्वीकार करना पड़ा कि श्रुतियों में जो 'कुछ नियम प्रतिपादित हुए वे स्मृतिवचनों द्वारा अथवा प्रचलित मनोभावों द्वारा या तो बाधित किये गये या खंडित किये गये या परित्यक्त किये गये । अग्निष्टोम यज्ञ में उदयनीया कृत्य की परिसमाप्ति के उपरान्त वैदिक वचनों द्वारा एक कृत्य प्रतिपादित किया गया था जिसके द्वारा मित्र और वरुण के लिए एक बांझ गाय (अनुबन्ध्या) की बलि दी जाती थी । किन्तु कालान्तर में इसे निन्द्य ठहराया गया और गाय के स्थान पर आमिक्षा (गर्म दूध और दही के मिश्रण ) का प्रयोग होने लगा । देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय ३३ । याज्ञ० ( ३।२३४ ) ने गोवध को उपपातकों में प्रथम स्थान दिया है। मेधातिथि (४।१७६) ने यह कहने के उपरान्त कि विश्वजित् यज्ञ में सम्पूर्ण सम्पत्ति के दान या गोवध जैसे कृत्य नहीं सम्पादित होने चाहिये (यद्यपि ये वेदानुमोदित हैं), कहा है कि उन्होंने ऐसी व्याख्या अपने पूर्ववर्ती लेखकों के मतों के अनुसार की है, किन्तु उनके अनुसार श्रुतिकथन स्मृतिकथनों द्वारा बाधित नहीं हो सकता । १३ और देखिये विश्वरूप ( पृ० २६, याज्ञ० १।७) । कभी-कभी सैद्धान्तिक रूप से दुर्बल स्मृतिवचन को श्रुतिवचन से अधिक महत्ता मिल गयी है, यथा-वेद ने सौनामणि इष्टि में आसव से कटोरों को भरने की व्यवस्था दी है, जो कलियुग में वर्जित ठहराया गया है ( देखिये आगे का अध्याय कलिवर्ज्य ) ।
सामान्य नियम यह है कि जब आचार या रीति श्रुतिवचन के विरोध में हो तो श्रुति (वेद) को ही मान्यता मिलती है । आपस्तम्ब ने इस नियम को कई बार बलपूर्वक प्रतिपादित किया है, यथा- आप० ध० सू० (१1१1४1८, १।११३०।८-६ एवं २।६।२३।६-६ आदि) ।
स्मृतिवचनों के पारस्परिक विरोध के समाधान का प्रश्न अपेक्षाकृत अधिक कठिनाई उत्पन्न करता | बहुत प्राचीन काल से ही स्मृतिकारों के वचनों में अत्यधिक विरोध पाया जाता रहा है। कुछ दृष्टान्त द्रष्टव्य हैं। आप ध० सू० (१।६।१६।२-१२ ) ने 'किन लोगों के यहाँ ब्राह्मण भोजन कर सकता है' के विषय में अपने पूर्ववर्ती दस लेखकों के मत प्रकाशित किये हैं । हमने ऊपर स्थानीय रीतियों की वैधानिकता के सम्बन्ध में गौतम एवं बौधायन के मतों पर प्रकाश डाल दिया है । मनु ने चार ऋषियों के तीन मत इस विषय में प्रकाशित किये हैं जो उस ब्राह्मण की स्थिति से सम्बन्धित हैं जो शूद्रा से विवाह करता है या उससे पुत्र या संतान उत्पन्न करता है। बौधा० ध० सू० ( १1८/२), मनु (३।१३), विष्णु० (२४|१|४), पारस्कर० (१३४) एवं वसिष्ठ (१।२५ ) ने व्यक्त किया है कि ब्राह्मण लोग शूद्र पत्नी कर सकते हैं, किन्तु याज्ञ० ( १।५६ ) ने इसका बिरोध किया है और कहा है कि 'मेरा ऐसा मत नहीं है।' इन स्थितियों
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१२. न हि प्रत्यक्षश्रुतिविहितस्य स्मृत्या बाघो न्याम्यः । मेधा (मनु ४।१७६) तेन वेदविरुद्धाया स्मृतेर्बाध इति स्थितिः । विश्वरूप ( पृ० २६, याज्ञ० १।७) ।
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