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अध्याय ३३
परम्पराएँ एवं धर्मशास्त्र-ग्रन्थ
हम इस अध्याय में देखेंगे कि धर्मशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थों ने किस प्रकार परम्पराओं एवं रीतियों की प्रामाणिकता एवं उनकी अनुल्लंघनीय शक्ति का विवेचन किया है। हारीत ने सदाचार की परिभाषा यों की है--'सत्’ का अर्थ है साधु (अच्छा ) और साधु लोग वे हैं जो क्षीण-दोष (अनैतिक कर्म रहित ) हैं; ऐसे लोगों के आचरण सदाचार कहे जाते हैं।' मनु ने भी सदाचार की परिभाषा की है (२।१८ ) ।
अधिकांश प्राचीन सूत्रों ने भी प्रमाणित किया है कि बहुत-सी परम्पराएँ एवं रीतियाँ विभिन्न देशों एवं ग्रामों में उद्भावित हुई । आश्वलायनगृह्यसूत्र ( १।७।१-२ ) का कथन है- "वास्तव में देशों (जनपदों) एवं ग्रामों के बहुतसे धर्म (आचार या रीतियाँ) हैं, लोगों को विवाहों में उनका अनुसरण करना चाहिये जो सब में समान ( सार्वजनीन ) हैं, हम उनका वर्णन करेंगे ।" आप० गु० सू० (२।१५) में कहा गया है -- "किस रीति की विधि का पालन करना चाहिये, इस विषय में लोगों को स्त्रियों से पूछना चाहिये," और आप० ध० सू० (१1७/२015 = २।११।२६।१४ ) ने व्यवस्था दी है कि आर्यों द्वारा सभी देशों में सर्व सम्मति से अनुमोदित आचरण के अनुसार तथा सम्यक् अनुशासित व्यक्तियों, वृद्धों, इन्द्रिय-निग्रहियों, अलोभियों और अदाम्भिकों (छलछद्मविहीनों) के आचरणों के अनुसार व्यक्ति को अपने कर्तव्य का निर्धारण करना चाहिये । और एक सूत्र में कहा गया है— कुछ आचार्यों का कहना है कि धर्मशेष ( शास्त्रवणित धर्मनियमों से बाकी बचे हुए ) कृत्य स्त्रियों से और सभी जाति के मनुष्यों से समझने चाहिये (स्त्रीभ्यश्च सर्ववर्णेभ्यश्च धर्मशेषान्प्रतीयादित्येके । २२२६।१५) । बौ० ध० सू० ( १।५।१३ ) का कहना है कि श्राद्ध के संबन्ध में ) -- " अन्य क्रियाओं के विषय में लोकरीतियों का पालन करना चाहिये ।" ३ कतिपय गृह्यसूत्रों (पारस्कर २।१७; मानव गृह्यसूत्र १।४।६ ) ने कृषि कर्म, छुट्टियों अर्थात् अनध्याय आदि के आरम्भ करने के विषय में लोगों द्वारा पालित होनेवाले आचरणों की ओर संकेत किया है । हम इनके विस्तार के विषय में यहाँ नहीं पड़ेंगे। मनु ( ४।१७८) ने सभी मनुष्यों के लिए सामान्य व्यवस्था दी है -- "व्यक्ति को उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिये जिस पर सज्जनों के पिता एवं पितामह चलते आये हैं; ऐसा करने से उसकी कोई हानि नहीं होगी । "४ सामान्य मनुष्यों के लिए यह विधि समझने एवं अनुसरण करने के लिए
१. साधवः क्षीणदोषाः स्युः सच्छन्दः साधुवाचकः । तेषामाचारणं यत्तु स सदाचार उच्यते ॥ हारीत ( परा० मा० १, भाग १, पृ० १४४ ) ; बिष्णुपुराण (३।११।३, दीपकलिका - - याज्ञ० १1७ ) ।
२. अथ खलूच्चावचा जनपदधर्मा ग्रामधर्माश्च तान् विवाहे प्रतीयात् । यत्तु समानं तद्वक्ष्यामः । आश्व• गृ० सू० ( ११७।१-२ ) ।
३. शेषक्रियायां लोकोनुरोद्धव्यः । बोधायनधर्मसूत्र ( १।५।१३ ) ।
४. येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः । तेन यायात्सतां मार्ग तेन गच्छन्न रिष्यति ॥ मनु (४।१७८ ) । और देखिये तन्त्रवार्तिक ( १1३1७ ); मिता० ( याज्ञ० १।१५४ ) एवं मेधा० ( मनु २1१८ ) |
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