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धर्मशास्त्र का इतिहास
विरोधी न हों), अन्य लोग जिनके पूर्वजों में ऐसी रीतियाँ स्वीकृत नहीं रही हैं, ऐसा करेंगे तो अपराध माना जायगा ।"
कुमारिल ने तन्त्रवार्तिक ( जै० ३।३।१४, पृ० ८५६-८६०) में बाध पर एक पाण्डित्यपूर्ण विवेचना उपस्थित है । उनके द्वारा एकत्र बाधों में कुछ पर इस विवेचना की संगति में हम प्रकाश डालेंगे। उनका कहना है कि प्रत्यक्ष अनुभव के सामने अनुमान का, श्रुति के समक्ष स्मृति का कोई मूल्य नहीं है । वह स्मृति जो प्रामाणिक व्यक्ति द्वारा प्रणीत नहीं है और जिसके वचन परस्पर विरोधी हैं, प्रामाणिक एवं अनात्मविरोधी स्मृति के समक्ष कुछ महत्व नहीं रखती । दृष्टार्थ वाली स्मृति अदृष्टार्थ वाली के आगे महत्त्वहीन है। श्रुतिमूलक अनुमान पर आधारित स्मृति या वैदिक वचन की प्रशंसा में कही गयी वैदिक उक्तियों पर आधारित स्मृति स्वयं ( प्रत्यक्ष ) श्रुति-वचन पर आधारित स्मृति के समक्ष महत्त्वहीन है । ( इसी प्रकार ) रीति, स्मृति के समक्ष कुछ अर्थ नहीं रखती और कोई रीति शिष्टों द्वारा स्वीकृत रीति के समक्ष महत्त्वहीन है ।
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