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________________ शिष्टाचार को श्रुतिमूलकता एवं सार्वदेशिकता तथा परंपराओं की श्रुत्यनुकूलता सभी के लिए प्रयुक्त हैं। प्रत्येक वैदिक नियम के पालनकर्ता को तीन विधियों से जाना जाता है--(१) योग्यता से, (२) अनिषिद्धता से तथा (३) विशेष कर्तव्यों के प्रयोग से। जब ऐसा कहा जाता है कि स्वर्ग की इच्छा करनेवाले को यज्ञ करना चाहिये (स्वर्गकामो यजत) तो इसका तात्पर्य है कि यह तीन प्रकार के द्विजों (ब्राह्मणों, क्षत्रियों एवं वैश्यों) के लिए है, क्योंकि ये ही लोग पवित्र अग्नियों में होम कर सकते हैं और वेदाध्ययन कर सकते हैं, शूद्र नहीं। पतित लोग एवं क्लीब वैदिक कृत्य नहीं कर सकते । “राजा राजसूयेन यजेत" वेद-कथन है, इसका तात्पर्य यह है कि राजा की (क्षत्रिय होने के कारण) यह विशिष्ट उपाधि या विशेषाधिकार है कि वह राजसूय यज्ञ कर सकता है। जब उपर्युक्त तीन विधियाँ न हों तो अन्य वैदिक विधि सामान्यतः सबके लिए मान्य होती है (सर्वधर्म)। होलाका, बृषभयज्ञ आदि केवल कुछ देशों के लिए नहीं है, ये सबके प्रयोग के लिए हैं। यदि कोई पूर्व को छोड़कर उत्तर चला जाय तो भी वह होलाका उत्सव कर सकता है, भले ही कोई प्राच्य व्यक्ति स्वयं उसे न करे। इसके अतिरिक्त 'दाक्षिणात्य', 'प्राच्य' आदि शब्द सापेक्ष (अविविक्त) हैं। कोई दक्षिणी देश किसी दूसरे देश के उत्तर में हो सकता है। अतः होलाका आदि उत्सवों की परम्पराएँ किन्हीं विशिष्ट देशों एवं लोगों से सम्बन्धित नहीं हो सकतीं। ऐसी ही बातें अपने ढंग से मेधातिथि (मनु ८।४६) ने भी कही हैं। तन्त्रवार्तिक का कथन है कि ऐसा कभी भी नहीं कहा जा सकता कि अमुक कृत्य अमुक देश के लिए विहित है । किसी देश में जन्म लेने, रहने या वहां से आने या वहाँ आने के कारण ही व्यक्तियों को उस देश के गुण-नाम प्राप्त होते हैं। तन्त्रवार्तिक ने व्याख्या की है कि जैमिनि( १।३।१५-२३) के प्रथम दो सूत्रों से एक अन्य प्रश्न उभर आता है-- क्या गृह्यसूत्रों एवं गौतमसूत्र जैसे अन्य धर्मसूत्रों के नियम केवल कुछ दलों के लिए प्रामाणिक हैं या सभी के लिए? कुमारिल का कहना है कि पुराण, मनुस्मृति एवं इतिहास (यथा महाभारत) सभी के लिए समान रूप से प्रामाणिक हैं, गोभिलगृह्यसूत्र एवं गौतमधर्मसूत्र परम्परा से सामवेद के पाठकों द्वारा स्वीकृत हैं, वसिष्ठधर्मसूत्र ऋग्वेद-पाठियों द्वारा स्वीकृत है, शंख-लिखित के सूत्र शुक्ल-यजुर्वेद के अनुयायियों को तथा आपस्तम्ब एवं बौधायन के सूत्र तैत्तिरीय शाखा के अनुयायियों को मान्य हैं । शास्त्रदीपिका का कथन है कि एक विद्वान् जो सामवेद का पाठक था, अपने ग्रन्थ को उन शिष्यों को भी पढ़ाता था जो उससे सामवेद पढ़ते थे और उसके विद्यार्थी आगे चलकर उसके ग्रन्थ को अन्य लोगों को पढ़ाते थे और इस प्रकार एक ऐसी परम्परा उठ खड़ी हुई कि सामवेद के पाठक गौतमसूत्र भी पढ़ने लगे। अतः ऐसा कहना कि गृह्यसूत्र किसी विशिष्ट दल से सम्बन्धित थे, भ्रामक है। यही बात विशिष्ट व्यवहारों के विषय में भी है। यह नहीं है कि कोई विशिष्ट उपाधि (कर्तव्य) या विशेषता सार्वजनीन नहीं हो सकती; अतः होलाका जैसे कृत्य किसी विशिष्ट देश या जन-समुदाय के लिए ही मान्य नहीं हो सकते, वे सार्वजनीन रूप भी धारण कर सकते हैं। वैधानिक परम्पराओं की विशेषताएँ पूर्व-भीमांसा के लेखकों द्वारा निम्न रूप से बतायी गयी हैं। वे परम्पराएँ प्राचीन होनी चाहिये,उन्हें श्रुति-स्मृति-सम्मत होना चाहिये, शिष्टों द्वारा उन्हें मान्य होना चाहिये, शिष्ट लोग उन्हें जानबूझकर जीवन में कार्यान्वित करें,उनके पीछे दृष्टार्थ नहीं होना चाहिये तथा उन्हें अनैतिक नहीं होना चाहिये । परम्पराओं के अतिरिक्त सामान्य प्रयोगों या रीतियों के विषय में पूर्वमीमांसकों ने कोई बन्धन नहीं डाला, केवल इतना ही कहा कि उन्हें भी अदृष्टार्थ होना चाहिये । खण्डदेव का कहना है कि केवल वे ही परम्पराएं वेद पर आधारित मानी जायेंगी जो वेद एवं स्मृतियों के विरोध में न पड़ें और जिन्हें शिष्ट लोग इस विश्वास से स्वीकार करें कि वे ऐसा करने से धर्मानुसरण ही करते हैं । मेधातिथि ने मनु (२।१८) की व्याख्या में कहा है- "वह स्मृति, जो वेद के विरोध में है या जिसके वचन परस्पर-विरोधी हैं या जो दृष्टार्थ है या लौकिक वृत्तियों को प्रतिपादित करती है,वेद पर आधारित नहीं मानी जा सकती।" मीमांसाकौस्तुभ (पृ० ५१, जै० १।३७) ने एक श्लोक उद्धृत कर कहा है--"केवल वे ही, जिनके पूर्वजों में कुछ रीतियां कई पीढ़ियों से मान्य रहती आयी हैं, उन रीतियों को स्वीकार कर सकते हैं (जब कि वे रीतियाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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