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धर्मशास्त्र का इतिहास खा लेते हैं जिनमें से उनके मित्र अथवा सम्बन्धी पहले ही खा चुके रहते हैं अथवा जिनका स्पर्श खाते समय उन लोगों से हो गया रहता है; वे दूसरों (अन्य सभी वर्गों ) द्वारा स्पर्श किये गये ताम्बूल का चर्वण करते हैं, और ताम्बूल खाने के उपरान्त आचमन नहीं करते, धोबी द्वारा धोये और गदहों की पीठ पर लादे गये वस्त्रधारण करते हैं; महापातकियों (ब्रह्महत्या को छोड़कर) के स्पर्श से दूर नहीं रहते । चारों ओर मनुष्य,जाति या परिवार के लिए व्यवस्थित धर्म-नियमों का उल्लंघन अधिक मात्रा में पाया जा रहा है, जो श्रुति एवं स्मृति के विरोध में पड़ता है और स्पष्टतः ऐसे अप्रामाणिक कृत्य दृष्टार्थ-द्योतक हैं।" इस प्रकार भट्टोजि दीक्षित के शिष्य वरदराज (१६६० ई०) ने अपने गीर्वाणपदमंजरी नामक ग्रंथ में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण एवं विजयनगर के एक सन्यासी के बीच हुई वार्ता में ब्राह्मण अतिथि से कहलाया है कि प्रत्येक देश में कुछ दुराचार पाये जाते हैं,यथा दक्षिण में मातुल-कन्या से विवाह,दक्षिणियों में चार वर्ष के पूर्व भी विवाह,कर्णाटक में बिना स्नान किये भोजन करना, महाराष्ट्र में ज्येष्ठ पुत्र के पहले कनिष्ठ पुत्र का विवाह और पहाड़ी प्रदेश में नियोग की प्रथा (देखिये श्री पी० के० गोडे का लेख, भारतीय विद्या, जिल्द ६, पृ०२७-३०)।
शबर के मत से जैमिनि (१।३।८-६) ने आर्यों एवं म्लेच्छों द्वारा विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त यव, वराह एवं वेतस जैसे शब्दों की व्याख्या की है (यववराहाधिकरण में ये सत्र पाये जाते हैं। किन्तु कुमारिल को शबर का यह मत नहीं जंचा है। उन्होंने इन दोनों सूत्रों के लिए एक नया विषय चुना है जो स्मृति एवं सदाचार की पारस्परिक श्रेष्ठता पर प्रकाश डालता है, अर्थात् अवरोध होने पर किसको वरीयता या प्रमुखता दी जाय, इसे व्यक्त किया गया है। इस विषय में तीन सम्भव मत प्रस्तुत किये गये हैं-(१) दोनों समान रूप से बलवान हैं, अतः विरोध उपस्थित होने पर विकल्प सहायक होता है, (२) आचार अपेक्षाकृत बलवान् है एवं (३) दोनों में स्मृति अधिक बलवान् है। प्रमुख बात तो यह है कि दोनों समान रूप से बलवान हैं, क्योंकि दोनों (स्मृति एवं सदाचार) का मूल वेद है । कुमारिल का अपना निष्कर्ष यह है कि विरोध उपस्थित होने पर स्मृति को अधिक वरीयता प्राप्त है, क्योंकि दोनों में अन्तर है। लोगों को मनु जैसी स्मृतियों पर पूर्ण विश्वास है; मनु आदि स्मृतिकार प्रबुद्ध अथवा ईश्वर प्रेरित ऋषि माने जाते हैं और विभिन्न वैदिक शाखाओं में बिखरे हुए नियमों के उद्घोषक कहे जाते हैं। किन्तु ऐसी बात आज के मनुष्यों के विषय में नहीं कही जा सकती, अतः उनके आचरणों को वह बल अथवा समर्थन नहीं प्राप्त हो सकता जो मनु आदि ऋषियों द्वारा व्यवस्थापित नियमों को प्राप्त होता है। शिष्टों के आचरण से ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि उसका मूल स्मृति में होगा और इसी प्रकार स्मृति का मूल श्रुति में पाया जा सकता है। इस प्रकार आचार वेद से दो स्तर नीचे है और स्मृति केवल एक स्तर नीचे। इसी से कुमारिल कहते हैं कि स्मृति और आचार के विरोध में स्मृति को वरीयता मिलनी चाहिये ।
कुमारिल ने जैमिनि के उपर्युक्त सूत्रों की अन्य व्याख्या भी दी है, जिसे हम यहां नहीं उपस्थित कर रहे हैं।
जैमिनि (१।३।१५-२३) ने होलाकाधिकरण या सामान्यश्रुतिकल्पनाधिकरण में कुछ विशिष्ट बातें दी हैं । इस अधिकरण में प्रथम और अंतिम दो सत्र बड़े महत्त्व के हैं। कुछ कृत्य यथा होलाका (वसन्त)का उत्सव, पूर्वीय लोगों द्वारा मनाये जाते हैं, आह्नीनबुक (किसी कुल द्वारा करंज अथवा अर्क के बढ़ते हुए पौधे की पूजा) जैसे कुछ कृत्य दाक्षिणात्यों द्वारा मान्य हैं तथा उद्वेषभ यज्ञ (ज्येष्ठपूर्णिमा को बैलों को सम्मानित किया जाता है और उनकी दौड़ करायी जाती है) नामक कृत्य भारत के उत्तर-दिशास्थ लोगों द्वारा मान्य रहा है। प्रश्न उठता है कि जब हम ऐसा कहते हैं किये कृत्य अथवा विशिष्ट व्यवहार वेदों पर आधारित है तो अनुमानित तत्सम्बन्धी वेदवचन पूर्व के लोगों,दक्षिणी लोगों आदि तक ही सीमित क्यों रखे गये । पूर्वपक्ष यह है कि उन कृत्यों के आधार के लिए श्रुति का अनुमान करना केवल कुछ निश्चित व्यक्तियों (प्राच्यों, दाक्षिणात्यों आदि)तक ही सीमित रखा जाना चाहिये था। निश्चित निष्कर्ष यही है कि ये कृत्य सार्वजनीन माने जाने चाहिये, क्योंकि वैदिक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित सामान्य नियम ऐसा है कि वे
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