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शिष्टों के कुछ अनाचारों का समाधान
६६१ व्याख्याओं से मीमांसकों की शुष्क तर्कपूर्ण पक्ष समर्थन की भावना टपकती है। देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अध्याय ११, जहाँ सीता की स्वर्णिम मूर्ति एवं राम का वर्णन है । युधिष्ठिर ने अपने ब्राह्मण आचार्य की मृत्यु के लिए जो मिथ्या भाषण किया, उसके प्रायश्चित के लिए युद्धोपरान्त अश्वमेध यज्ञ किया था । अश्वमेध सम्पादन से सारे पाप कट जाते हैं ( तै० सं० ५।३।१२।१-२, शतपथब्राह्मण १३1३1१1१ आदि) । पाँच पतियोंवाली द्रौपदी के विषय में कुमारिल ने आदिपर्व (१६८।१४ या १६० १४ ) को उद्धृत करते हुए कई व्याख्याएँ उपस्थित की हैं ( तन्त्रवार्तिक, पृ० २०६ ), जिनमें सबसे आश्चर्यजनक व्याख्या यह है कि पांच भाइयों की एक दूसरी से मिलती-जुलती ऐसी पांच पत्नियां थीं जिनको एक ही माना गया है। जैसा कि न्यायपुत्रा ( पृ० १६४ ) का कथन है, वे व्याख्याएँ केवल व्याख्या करने की महती क्षमता एवं दक्षता की द्योतक हैं ( परिहार- वैभवार्थम् ), वास्तव में उचित व्याख्या तो यही थी कि पांडवों का आचरण इस विषय में दूषित था और किसी प्रकार अनुकरणीय नहीं माना जा सकता । अन्ध व्यक्ति यज्ञ सम्पादन नहीं कर सकता और न उसे उत्तराधिकार ही प्राप्त होता है । देखिये इस ग्रंथ का खंड २, अध्याय ३ एवं खंड ३, अध्याय २७ । किन्तु कुमारिल का कथन है कि धृतराष्ट्र ने व्यास की अलौकिक शक्ति द्वारा थोड़ी देर के लिए दृष्टि प्राप्त कर ली थी और अपने मृत पुत्रों को देख भी लिया था ( आश्रमवासिक पर्व, अध्याय ३२-३७), अतः यज्ञों के समय भी उन्हें दृष्टि मिली होगी, या ऐसा कहा जा सकता है कि उन्होंने केवल दान मात्र किये जो यज्ञों के अर्थ में वर्णित हुए हैं। सुभद्रा के विषय में कुमारिल का कथन है कि आदिपर्व ( २१६ । १८ या २११।१८ ) में जो उसे वसुदेव की पुत्नी और कृष्ण की भगिनी कहा गया है, ऐसा नहीं है । वास्तव में यह कृष्ण की विमाता की बहिन की पुत्री या उसके विपिता की बहिन की पुत्री की पुत्री थी (लाट देश में पितृव्य स्त्री को बहिन कहा जाता है) । रुक्मिणी के साथ कृष्ण के विवाह के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। यह आश्चर्य है, जैसा कि खण्डदेव का कथन है, सुभद्रा वसुदेव की पुत्री नहीं थी । लगता है, खण्डदेव ने महाभारत की किसी अशुद्ध प्रति का अध्ययन किया था । वासुदेव (कृष्ण) एवं अर्जुन को जो मद्यप कहा गया है ( उद्योगपर्व ५६।५ उभौ मध्वासवक्षीवौ ) उसके विषय में कुमारिल ने ऐसी व्याख्या की है कि वे दोनों क्षत्रिय थे, केवल ब्राह्मणों के लिए किसी भी प्रकार के मद्य का सेवन वर्जित है ( गौ० २।२५), क्षत्रियों और वैश्यों के लिए मधु ( मधु या मधूक पुष्पों से निकाला हुआ आसव ) एवं सीधु (एक प्रकार की मद्य ) नामक दो आसव - प्रकार आज्ञापित थे और केवल पेष्टी (आटे से निकाली हुई मद्य ) वर्जित थी ( गौ० २१५ एवं मनु० ११२६३ - ६४ ) ।
कुमारिल ने जैमिनि (१।३।५ - ६ ) की अन्य व्याख्याएँ भी उपस्थापित की हैं जिन्हें हम स्थानाभाव से यहाँ नहीं दे रहे हैं ।
कुमारिल ने अपने काल के कुछ प्रचलित आचरणों का उल्लेख किया है और उन्हें अंत में वर्जित एवं अप्रामाणिक ठहराया है। उनका कथन है- " आजकल भी अहिच्छत्र एवं मथुरा की नारियां आसव पीती हैं; उत्तर ( भारत ) के ब्राह्मण लोग घोड़ों, अयाल वाले खच्चरों, गदहों, ऊंटों एवं दो दन्त पंक्ति वाले पशुओं का क्रय एवं विक्रय करते और एक ही थाल में अपनी पत्नियों, बच्चों तथा मित्रों के साथ भोजन करते हैं; दक्षिण के ब्राह्मण मातुल कन्या ( ममेरी बहिन ) से विवाह करते हैं और खाट (मंत्र) पर बैठकर खाते हैं, उत्तरी और दक्षिणी ब्राह्मण उन पात्रों के पक्वान्न
एव ताः सदृशरूपा द्रौपद्येकत्वेनोपचरिता इति व्यवहारार्थापत्या गम्यते । तन्त्रवार्तिक ( पृ० २०६ ) ; एवमर्जुनस्य मातुलकन्यायाः सुभद्रायाः परिणयेपि सुभद्राया वसुदेवकन्यात्वस्य साक्षात् क्वचिदप्यश्रवणात् । मीमांसाको० ( पृ० ४८) किन्तु आदिपर्व ( २१६।१८ ) में सुभद्रा स्पष्ट रूप से वसुदेव की पुत्री कही गयी है - 'दुहिता वसुदेवस्य वासुदेवस्य च स्वसा ।'
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