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________________ ६६० धर्मशास्त्र का इतिहास ; शत० ब्रा० ११।५।१ - ८ ) ( ६ ) विश्वामित्र ने शाप से चाण्डाल हुए त्रिशकु के यज्ञ का पौरोहित्य किया (आदिपर्व ७१1३१-३३); (७) युधिष्ठिर ने छोटे भाई अर्जुन द्वारा (धनुर्विद्या से ) जीती हुई द्रौपदी को अपनी स्त्री बनाया और अपने ब्राह्मण गुरु द्रोणाचार्य के मरण के लिए मिथ्या भाषण किया ( द्रोणपर्व १६०।५० ) ; ( ८ ) कृष्ण द्वैपायन (व्यास) ने जो अपने को नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे, माता सत्यवती के कहने पर अपने भाई विचित्रवीर्य की पत्नियों नियोग विधि द्वारा दो पुत्र उत्पन्न किये; (६) भीष्म ने जिन्होने अपने को किसी भी आश्रम में नहीं रखा, पत्नीहीन होने पर भी बहुत-से अश्वमेघ यज्ञ किये; (१०) राम ने सीता की सुवर्ण-मूर्ति के साथ अश्वमेघ यज्ञ किया; (११) धृतराष्ट्र होते हुए भी यज्ञ किये; (१२) वासुदेव एवं अर्जुन मद्य का सेवन करते थे और उन्होंने क्रम से रुक्मिणी एवं सुभद्रा से, जो उनके मामा की पुत्रियाँ थीं, विवाह किया (ऐसे विवाह वर्जित हैं) । तन्त्रवार्तिक ने इन अशिष्टाचरणों की व्याख्या करके समझाने का प्रयत्न किया है कि वास्तव में ये अशिष्टाचरण नहीं हैं । कुमारिल ने आजकल के अलंकारशास्त्री के समान ( तन्त्रवार्तिक, पृ० २०८ ) व्याख्या की है कि 'प्रजापति' का अर्थ है 'सूर्य' जो उषा के पीछे जाता है (उषा के पश्चात् उदित होता है) । यह व्याख्या प्राचीन है ( ऐत० ब्राह्मण १३।६) । इसी प्रकार 'इन्द्र' एवं 'अहल्या' का क्रम से अर्थ है 'सूर्य' एवं 'रात्रि' और 'जार' का अर्थ है 'वह जो अंतर्ध्यान कराता है' या 'समाप्त कराता है', न कि 'पापपति' या 'उपपति' । महाकाव्यों में इन्द्र एवं अहल्या की कहानी विविध ढंगों से कही गयी है । देखिये रामायण ( १२४८), उद्योगपर्व (१२।६) । यों ये अशिष्टव्यवहार धर्म-व्यतिक्रम के उदाहरण हैं । वसिष्ठ का धर्म-व्यतिक्रम-आचरण साहस का द्योतक हैं, वे बहुत दुखी थे । कुमारिल का कथन है कि विश्वामित्र वसिष्ठ के द्रोही एवं घमण्डी थे, उनका पाप कृत्य उनकी तपःसाधना से समाप्त हो जाता है। अतः उनके कार्य अन्य लोगों द्वारा अनुकरणीय नहीं हैं । व्यास की माता सत्यवती ने कुमारी अवस्था में पराशर के द्वारा व्यास को उत्पन्न किया था । विचित्रवीर्य उनके भाई अवश्य थे किन्तु उनके पिता शान्तनु थे, क्योंकि शान्तनु से विवाह के उपरान्त उनका जन्म हुआ था । ब्रह्मचारी का स्त्री-सम्बन्ध निन्द्य कर्म है । व्यास माता की प्रेरणा पर ही नियोग के लिए तैयार हुए और गौतम (१८१४ - ५ ) ने इसके लिए व्यवस्था भी दी है। कुमारिल का कहना है कि व्यास ऐसा तभी कर सके जब कि उनके पीछे तपःसाधना का ( पूर्व जीवन और वर्तमान जीवन का ) बल था और कोई भी प्रतिबन्धों के रहते हुए ऐसा कर सकता है, क्योंकि महाभारत ( आश्रमवासिक पर्व ३०।२४) का कथन हैं -- "सर्वं बलवतां पथ्यम् " ( समरथ को नही दोष गुसाईं, अर्थात् बलवान् या सामर्थ्यवान् के लिए सभी ठीक या आज्ञापित है ) । कुमारिल ने एक सम्यक् उदाहरण दिया है - हाथी वृक्षों की शाखाओं का भक्षण कर सकता है और उसकी हानि नहीं होती, किन्तु कोई अन्य ऐसा करने पर मृत्यु पा सकता है । दक्ष ( ५।१०) का कथन है--"अनाश्रमी न तिष्ठेत क्षणमेकमपि द्विजः ", अर्थात् द्विज को एक क्षण भी बिना किसी आश्रम से सम्बन्धित हुए नहीं रहना चाहिये । भीष्म अपनी पितृ-भक्ति के कारण ही अविवाहित रहे और राम सीता के अतिरिक्त किसी अन्य पत्नी की कल्पना नहीं कर सकते थे । कुमारिल ने साहस के साथ कहा है कि केवल यज्ञ करने के उद्देश्य से भीष्म की एक पत्नी थी ( यद्यपि यह बात न तो किसी इतिहास में पायी जाती है और न किसी पुराण में ) और इस कथन की सिद्धि के लिए उन्होंने अर्थापत्ति प्रमाण का आश्रय लिया है । १२ कुमारिल की १२. लोभाद्यभिभवात्सन्निहितानर्थादर्शनेनाधर्माचरणं धर्मव्यतिक्रमः । दृष्टस्याप्यनर्थस्य बलदपणानादरादधर्माचरणं साहसम् । न्यायसुधा ( पृ० १८५ ) ; भ्रातृणामेकमनुरब्रवीत् (मनु ६ । १८२ ) -- इत्येवं विचित्रवीर्यक्षेत्रजपुत्रलब्धपित्रनृणत्वः केवलयज्ञार्थं पत्नी सम्बन्ध आसीदित्यर्थापत्यानुक्तमपि गम्यते । यो वा पिण्डं पितुः पाण विज्ञातेपि न दत्तवान् । शास्त्रार्थातिक्रमाद् भीतो यजेतेकाक्यसौ कथम् । तन्त्रवार्तिक ( पृ० २०८ ); अथवा बहव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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