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________________ शिष्टों के विशेष आचारों की ही मान्यता ६५६ जो अभिव्यक्त वैदिक वचनों के विरोधी नहीं हैं, वे वैदिक शिष्टों द्वारा इस विश्वास से आचरित होते हैं कि वे सम्यक् आचरण (धर्म) के द्योतक हैं और उनके लिए कोई दृष्टार्थ (यथा आनन्द या इच्छापूर्ति या धन प्राप्ति) की योजना नहीं है । शिष्ट लोग वे हैं जो वेदविहित धार्मिक कृत्य सम्पादित करते हैं । उन्हें शिष्ट इसलिए नहीं कहते कि वे उन कार्यों को करते हैं जिन्हे सदाचार की संज्ञा मिली है, नहीं तो चक्रिकापत्ति' या 'अन्योन्याश्रय' दोष उपस्थित हो जायगा (यथासदाचार वह है जो शिष्टों द्वारा आचरित होता है और शिष्ट वे हैं जो सदाचार के अनुसार आचरण करते हैं) । वे आचरण, जो परम्परा से चले आये हैं और शिष्टों द्वारा धर्म के रूप में ग्रहण किये जाते हैं, धर्म के समान माने जाते हैं और स्वर्ग प्राप्ति कराते हैं (तन्त्र वार्तिक, पृ० २०५ - २०६ ) । तन्त्रवार्तिक ने ऐसे आचरणों के कुछ उदाहरण दिये हैं, यथा -- दान, जप, मातृयज्ञ (मातृका देवताओं की आहुतियाँ), इन्द्रध्वज का उत्सव, मन्दिरों के मेले, मास की चतुर्थी को कुमारियोंका उपवास, कार्तिकशुक्ल प्रतिपदा को दीप दान, चैत्र कृष्णपक्ष के प्रथम दिन वसन्तोत्सव आदि ।" "तन्त्र वार्तिक न सभी प्रकार के कृत्यों को शिष्टाचरण नहीं माना है, यथा-- कृषि, सेवा ( साधारण नौकरी ), वाणिज्य आदि जिससे धन तथा सुख की प्राप्ति होती है; मिष्ठान्न-पान, मृदु शयन-आसन, रमणीय गृहोद्यान, आलेख्य, गीत-नृत्य आदि, गन्ध-पुष्प आदि; क्योंकि ये म्लेच्छों एवं आर्यों में समान रूप से पाये जाते हैं, अतः ये धर्म के स्वरूप नहीं हैं । ऐसा कहना कि शिष्टों के कुछ आचरण धर्माचरण हैं तो उनके सभी आचरण धर्म-विषयक होंगे; भ्रामक है । सामान्य जीवन में थोड़े-से ही आचरण शिष्टाचार की संज्ञा पाते हैं, अन्य कार्य या आचरण, जो सबमें ( शिष्टों में भी) समान रूप से पाये जाते हैं, धर्माचरण नहीं कहे जा सकते। देखिये तन्त्र वार्तिक ( पृ० २०६ - २०८ ) । तन्त्र वार्तिक ने गौतम (१/३) एवं आपस्तम्ब ध० सू० (२ ६ । १३।७-८ ) के वचनों की चर्चा करते हुए कहा है कि प्राचीन ( या श्रेष्ठ ) लोग बहुत-सी बातों में धर्मोल्लंघन - पाप के अपराधी थे और उन्होंने साहसिक कार्य किये, किन्तु उनके प्रभाव के कारण उन्हें पाप नहीं लगा, किन्तु उनके बाद के लोग यदि वैसा कार्य करें तो वे नरक में पड़ेंगे । १ १ तन्त्रवार्तिक ने अशिष्टाचरण के बारह उदाहरण दिये हैं और कहा है कि यो क्रोध, ईर्ष्या आदि अन्य दुर्वृत्तियों के फलस्वरूप हैं । ये दुराचरण अवतारों में भी देखे गये हैं । उक्त बारह उदाहरण ये हैं -- ( १ ) प्रजापति ने अपनी पुत्री उषा से संभोग किया (शतपथ ब्राह्मण १।७।४।१ या ऐतरेय ब्राह्मण १३।६); (२) इन्द्र ने अहल्या के साथ संभोगाचरण किया; (३) इन्द्र की स्थिति प्राप्त करने वाले नहुष इन्द्राणी शची के साथ संभोग करना चाहा ( उद्योगपर्व, अध्याय १३) और वह अजगर बना दिया गया; (४) राक्षस द्वारा सौ पुत्रों के खा लिये जाने पर वसिष्ठ ने दुखी होकर अपने को बांधकर विपाशा नदी में फेंक दिया। (निरुक्त ६ । २६, आदिपर्व १७७।१-६ या १६७।१-६, वनपर्व १३०1८-६, अनुशासन पर्व ३।१२ - १३ ) ; ( ५ ) उर्वशी के वियोग में पुरूरवा ने लटक कर मर जाना चाहा या भेड़ियों द्वारा अपने को भक्षित करा देना चाहा (ऋग्वेद १०६५।१४ १०. 'इन्द्रमह' नामक उत्सव के लिए देखिये इस ग्रन्थ का खंड ३, अध्याय २४ । वसन्तोत्सव में लोग चैत्र कृष्णपक्ष के प्रथम दिन एक-दूसरे पर सादा पानी या रंगीन पानी छोड़ते हैं; 'फाल्गुन (अमान्त) कृष्णपक्षप्रतिपदि क्रियमाणः परस्परजलसेको वसन्तोत्सव:' मयूखमालिका ( शास्त्रदीपिका, जैमिनि० १।३।७ ) | आजकल यह कृत्य फाल्गुन की पूर्णिमा को होलिका जलाकर किया जाता है । आजकल को होलिका के विषय की जानकारी के लिए देखिये भविष्यपुराण ( उत्तरपर्व, अध्याय १३२ ) । ११. दृष्टो धर्मव्यतिक्रमः साहसं च महतामृ । अवरदौर्बल्यात् । गौ० (१1३-४ ) : दृष्टो साहसं च पूर्वेषाम् । तेषां तेजोविशेषेण प्रत्यवायो न विद्यते । तदन्वीक्ष्य प्रयुञ्जानः सीदत्यवरः । आप० ध० सू० भागवतपुराण (१०।३३।३०) । (२।६।१३-७६ ) ; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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