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धर्मशास्त्र का इतिहास
(५) जब मनु ( ६ । ३८ ) यह घोषित करते हैं कि ब्राह्मण को परिव्राजक होने के लिए गृहत्याग करना चाहिये तो ऐसा कहना वैदिक बचनों (बृहदारण्यकोपनिषद् ३।५।१, 'व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति' या जाबालोपनिषद् ४) को दुहराना मात्र है ।
शवर ने जैमिनि (१1३1५-७ ) की व्याख्या करते हुए स्मृतियों के निम्न वचनों को वेदाधारित कहकर प्रामाणिकता दी है -- "शिष्टों का कथन है कि धार्मिक कृत्य आचमन करके करना चाहिये, देवपूजन में जनेऊ को उपवीत विधि से धारण करना चाहिए, सारे धार्मिक कृत्य दाहिने हाथ से करने चाहिये ।" प्रश्न यह है कि क्या ऐसे कार्य तभी करने चाहिये जब कि वे वेद- विरुद्ध न हों या जब वे वेद के वचन के विरुद्ध हों तो उन्हें नहीं करना चाहिये ? पूर्वपक्ष का मत तो यह है कि ऐसे कार्य नहीं किये जाने चाहिये, क्योंकि वे वेद - विहित क्रम के विरोध में पड़ते हैं। उदाहरणार्थ, वेद का कथन है-- "कुश की वेद नामक गड्डी (या एक मुट्ठा) बना लेने के उपरान्त ही वेदिका (वेदी) बनानी चाहिये ।" यहां पर गड्डी बना लेने के उपरान्त ही वेदिका निर्माण की बात कही गयी है। यदि गड्डी बना लेने के उपरान्त छींक आ जाय तो मनु ( ५।१४५) एवं वसिष्ठ (३१३८ ) के मत से व्यक्ति को आचमन करके ही वेदिकानिर्माण करना चाहिये । पर ऐसा करना वेद विहित क्रम के विरुद्ध जाना है। यदि कोई वेद - विहित कृत्य को दोनों हाथों से करे तो वह शीघ्रता से कर सकता है। स्मृति-नियम यह है कि धार्मिक कृत्य दाहिने हाथ से करना चाहिये, इससे धार्मिक कृत्य के शीघ्र सम्पादन में रुकावट आ जाती है । प्रतिष्ठित निष्कर्ष तो यह है कि ये कृत्य (यथा आचमन ) शिष्टों द्वारा सम्पादित होते हैं, इनके पीछे कोई दृष्टार्थ नहीं है, अतः ये प्रामाणिक हैं और श्रुति-विरोधी नहीं हैं ।" कुमारिल को जै० सूत्रों की ऐसी व्याख्या नहीं जँची, क्योंकि शबर के उदाहरण श्रुति के विरोध में प्रमुख रूप में नहीं जाते दीखते । तन्त्रवार्तिक ( पृ० २०१ ) ने तै० सं० (२।५।११1१ ), तै० आरण्यक ( २1१ एवं ११ ) के वचनों को उद्धृत कर उपवीत ढंग से जनेऊ धारण करने एवं आचमन करने की बात कही है, अतः इसने सूत्रों को दूसरे ढंग से समझाया है । इसने जैमिनि ( १।३।५-७ ) को दो अधिकरणों में बाँटा है, दोनों एक ही विषय से सम्बन्धित हैं । पूर्वपक्ष यह है -- बुद्ध एवं अन्य सम्प्रदायों के संस्थापकों के उपदेश ( यथा -- मठों एवं वाटिकाओं का निर्माण, कामनारहित होना ध्यान का अभ्यास करना, अहिंसा, सत्य, इन्द्रिय-निग्रह, दया- दाक्षिण्य ) ऐसे हैं जो वेद में भी पाये जाते हैं, वे शिष्टों की भावनाओं के विरोध में नहीं हैं और न वेदज्ञों को क्रुद्ध ही करते हैं, अतः उन्हें प्रामाणिकता मिलनी चाहिये । किन्तु कुछ लोग इन विषयों के रहते हुए भी बौद्ध सिद्धान्त को प्रामाणिकता नहीं देते, क्योंकि केवल परिमित ही (१४ या १८) विद्याओं (४ वेद, ४ उपवेद, ६ वेदांग, १८ स्मृतियाँ, पुराण, दण्डनीति) को शिष्टों ने धर्म के विषय में प्रामाणिक माना है, जिनमें बौद्ध एवं जैन ग्रन्थ सम्मिलित नहीं हैं । ६ जिस प्रकार दूध मूल रूप से शुद्ध रहते हुए भी श्व चर्मपेटी में रखने से अशुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार बौद्धों के सिद्धान्त, अहिंसा आदि, सत्यपर आधारित होते हुए भी व्यर्थ हैं और वेदानुयायियों के लिए स्वतः प्रामाणिक नहीं हो सकते ।
तन्त्रवार्तिक का कथन है कि जैमिनि ( १।३।७ ) का वचन स्वतः एक 'अधिकरण' है और सदाचार ( परम्पराएँ एवं शिष्टों के आचरण या प्रयोग ) की प्रामाणिकता से सम्बन्धित हैं । स्थिति यह है कि वे ही आचरण प्रामाणिक हैं'
६. १४ विद्यास्थानों के लिए देखिये याज० (१३) । चार उपवेदों (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धवं एवं अर्थशास्त्र के मिल जाने से विद्याएँ १८ हो जाती हैं। देखिए विष्णु पुराण (३।६।२८ ) । न्यायसुधा ( पृ० १८३ ) के मत से आयुवेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद, एवं अर्थशास्त्र चार उपवेद हो जाते हैं; मीमांसा एवं न्याय दो उपांग हैं, शिक्षा ( ध्वनिशास्त्र वाला वेदांग नहीं) पृथक् रूप से वर्णित है । दण्डनीति अर्थशास्त्र ही है ।
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