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________________ ६६६ धर्मशास्त्र का इतिहास सरल है । यह वचन स्पष्ट करता है कि परिवर्तन अथवा प्रगतिशीलता की गुंजाइश सदैव अनुभूत होती रही है, परिवर्तन का भय निरर्थक है, जैसा कि बहुधा पहले और आजकल के कुछ लोग भ्रामक ढंग से समझते अथवा करते आये हैं । हमारे धर्मशास्त्रों ने नयी रीतियों अथवा श्रेष्ठ गुरुजनों एवं शिष्टों की रीतियों को, जो समयानुसार समाजकल्याण एवं नयी व्यवस्थाओं के लिए स्थित्यनुकूल परिवर्तित होती रही हैं, सदैव मान्यता दी है । आचार या सदाचार सुस्पष्ट अथवा प्रत्यक्ष होता है और विरोधी मतों की स्थिति में समझौता करने में उसे समझना बड़ा सरल होता है, इसी से प्राचीनतम स्मृतियों एवं पुराणों में इसकी प्रशंसा की गयी है। देखिये मनु ( ४।१५५ - १५८), वसिष्ठ ० (६।६-८), अनुशासनपर्व (१०४१६-६), विष्णु० (७१२६०-६२), मार्कण्डेय (३४), ब्रह्मपुराण ( १२११६-६), विष्णुपुराण (३, अध्याय ११-१२ ) एवं कूर्मपुराण (उत्तरार्ध, अध्याय १५ ) । परम्पराओं के अनुल्लंघनीय स्वरूप के विषय में सामान्य नियम निम्न प्रकार का है। गौतम (११।२० ) कहते हैं--“देश, जाति एवं कुल के धर्म, जो वैदिक वचनों के विरोध में नहीं पड़ते, प्रामाणिक एवं अनुल्लंघनीय हैं।" गौतम ने इसके आगे के दो सूत्रों में कहा है कि कृषक ( खेतिहर ), वणिक्, पशुपालक, कुसीदी ( महाजन या हुंडी चलानेवाले ऋणदाता अथवा व्याज पर रुपया देनेवाले) एवं शिल्पी अपने-अपने वर्गों के लिए धर्म - व्यवस्थाएँ एवं रीतियाँ चला सकते है, और इन व्यवस्थाओं अथवा रीतियों से उत्पन्न विवादों के निर्णयों में राजा को उन लोगों से सम्मति लेनी चाहिये जो इन वर्गों में श्रेष्ठता प्राप्त किये रहते हैं । वसिष्ठ (१1१७ ) का कथन है -- “ मनु ने घोषित किया है कि देशों, जातियों एवं कुलों की परम्पराएँ वेद-नियमों के अभाव में सम्मानित होनी चाहिये और उन्होंने आगे चलकर एक स्थान ( १६७) पर व्यवस्था दी है कि “राजा को चाहिये कि वह इन परम्पराओं ( धर्मो) को चारों वर्णों द्वारा पालित कराये।" यही बात आप ० ध० सू० (२।६।१५।१ ) ने भी कही है, किन्तु यह मत, लगता है, बौधायनधर्मसूत्र ( १1१1१६-२६ ) को मान्य नहीं है - "दक्षिण और उत्तर में पांच प्रकार के व्यवहारों में मतैक्य नहीं है । हम दाक्षिणात्यों के नियमों की व्याख्या करेंगे, जो ये हैं जिनका उपनयन न हुआ हो, उनके साथ (एक ही पात्र में ) भोजन करना, पत्नी के साथ उसी प्रकार भोजन करना, पर्युषित भोजन ( बासी भोजन) करना, एवं मातुलकन्या या फूफी की पुत्री से विवाह करना । उत्तरी लोगों की विशेष पांच रीतियाँ ये हैं--ऊर्णाविक्रय (ऊन बेचना ), सीधु-पान ( सीधु नामक आसव का जो खाँड या सीरा से बनाया जाता है, पीना), दो दंत-पंक्तियों वाले पशुओं का व्यापार, आयुधजीवी ( अस्त्र-शस्त्र का पेशा करना) होना तथा समुद्र-यात्रा । अन्य देशों के लोग जब इन रीतियों का अनुसरण करते हैं तो पाप के भागी होते हैं । इन रीतियों को उन्हीं देशों में प्रामाणिकता मिली है जहाँ पर ये विशिष्ट रूप से मान्य होती रही हैं। गौतम का कहना है कि यह बात गलत है और झूठ है; उनके कहने के अनुसार ये रीतियाँ स्वीकार्य नहीं होनी चाहिये, क्योंकि ये शिष्टों की परम्परा के विरुद्ध हैं (या शिष्ट-स्मृतिविरोधी हैं) ।" तंत्रवार्तिक ( पृ० २११ ) ने आपस्तम्ब एवं बौधायन की उक्तियों की चर्चा की है और कहा है कि आपस्तम्ब का तत्सम्बन्धी सामान्य नियम वैधानिक नहीं माना जाना चाहिये, क्योंकि वह गौतम (११।२०) के विरोध में पड़ता है, और उसने ( तन्त्रवार्तिक ने ) बौधायन के कथन की मान्यता प्रकट की है कि वे विशेष आचरण, जो कुछ विशिष्ट स्थानों में प्रचलित हैं, उन विशेष स्थानों के लिए भी वैधानिक एवं अनुल्लंघनीय नहीं समझे जाने चाहिये, क्योंकि वे मनु आदि प्रतिष्ठित, सम्पूज्य एवं प्रामाणिक धर्माज्ञापकों के विरोध में पड़ते हैं । ५. देशजातिकुलधर्माश्चास्नायैरविरुद्धाः प्रमाणम् । कर्षकवणिक् कुसीदिकारवः स्वे स्वे वर्गे । तेभ्यश्च यथाधिकारमर्थानप्रत्यवहृत्य धर्मव्यवस्था । गौ० (११/२०-२२ ) ; देशधर्म जातिधर्म कुलधर्मात्र श्रुत्यभावावब्रवीन्मनुः । वसिष्ठ ० ( १०१७ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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