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धर्म के मूल या प्रमाण
६५३ प्रामाणिकता उत्पन्न करती है, उसी प्रकार जीवन की परिवर्तित परिस्थितियों में वास्तविक धर्म की खोज में शिष्टों के व्यवहार हमें आवश्यक कसौटी प्रदान करते हैं, अर्थात् शिष्टों के आचार से यह प्रकट हो जाता है कि हमारा कार्य शास्त्र fafe है कि नहीं। प्राचीन लेखकों का यह सिद्धान्त था कि स्मृतियाँ वेदों के उन भागों पर आधारित हैं जो पहले थे किन्तु अब नहीं प्राप्त होते, उसी प्रकार शिष्टों के आचार भी वेदों के उन भागों पर आधारित हैं जो अब नहीं उपलब्ध हैं। देखिए आप ध० सू० (१।४।१२ ८, १०-१३), मनु (२/७ ) । शिष्टों के सभी व्यवहार धर्म के लिए प्रमाण नहीं हैं, यथा--उनके वे कार्य जो उनके लाभ या आनन्द के फलस्वरूप होते हैं, प्रमाण नहीं माने जा सकते । मनु (२1१८ ) ने ब्रह्मावर्त देश के चारों वर्णों एवं वर्णसंकरों में पीढ़ियों से चली आती हुई परम्पराओं के अन्तर्गत सदाचार को निहित मान रखा है। किन्तु बहुत से लेखकों ने सदाचार को इस प्रकार सीमित नहीं ठहराया है ।
अब हम धर्म के मूलों या प्रमाणों तथा धर्म के स्थानों के अंतर के विषय में लिखेंगे ( याज्ञ० १३ एवं ७ ) । ३ धर्म के मूल (प्रमाण) ज्ञापक हेतु कहे जाते हैं, क्योंकि वे 'धर्म क्या हैं, के विषय में बतलाते हैं, किन्तु स्थान को धर्मविवेचक लोग सहायक हेतु के रूप में मानते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि वेद एवं स्मृतियों के अतिरिक्त अन्य विद्याएँ सीधे रूप से धर्म की मूल नहीं है, प्रत्युत वे मध्यस्थता का कार्य करती हैं । यह अन्तर बहुत प्राचीन है, क्योंकि गौतम (११।१६) ने भी कहा है कि राजा को न्याय - शासन में वेदों, धर्मशास्त्रों, अंगों ( सहायक विद्याओं ), उपवेदों एवं पुराणों से सहायता मिलती है । ४
स्मृतियों एवं परम्पराओं की प्रामाणिकता के संबंध में पूर्व मीमांसा की स्थिति की विस्तृत विवेचना आवश्यक है । जैमिनि ( १1३1१-२ ) ने विचार किया है कि क्या इस प्रकार की स्मृति उक्तियाँ, यथा--' अष्टका श्राद्ध करना चाहिये' 'या तालाब बनवाना चाहिये' या 'प्रपा' (पौसरा) का निर्माण करना चाहिये या ( गोत्र के अनुसार ) सिर पर शिखा रखनी चाहिये, प्रामाणिक हैं ? और अन्त में निष्कर्ष निकाला गया है कि ये उक्तियाँ प्रामाणिक हैं, क्योंकि ये उन्हीं लोगों के प्रति सम्बोधित हैं जो इनके अनुसार (वेद के अनुयायी होने के कारण ) कर्म करते हैं । तात्पर्य यह है, कि जो लोग वेदविहित कार्य करते हैं वे मनु आदि की स्मृतियों के वचनों का भी पालन करते हैं, अर्थात् जो वेद को जानते हैं वे स्मृतियों को भी प्रामाणिक मानते हैं और उनके अनुसार चलते हैं। मेधातिथि ( मनु २६ ) ने भी ऐसा ही कहा है । शबर ने व्याख्या करते हुए कहा है कि वेदों में भी ऐसी उक्तियाँ हैं जो स्मृतियों के वचनों की ओर संकेत करती है, यथा वैदिकवचन 'यां जनाः' अष्टका का, ऋग्वेद ( १०|४|१) प्रपा का एवं ऋग्वेद (६।७५।१७ ) शिखा का द्योतक है। किन्तु इस कथन का विरोध यह कहकर उपस्थित किया जा सकता है— स्मृतियाँ मनुष्यकृत (पौरुषेय) हैं, अतः धर्म के विषय वे उनका स्वतंत्र प्रमाण नहीं है, क्योंकि मनुष्य झूठी या त्रुटिपूर्ण बात भी कह सकता और यदि यह कहा जाय कि स्मृतियाँ वही कहती हैं जो वेद द्वारा कहा गया है, तो उनका कहना पुनरुक्तता
३. पुराणन्यायमीमांसा धर्मशास्त्रांगमिश्रिताः । वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥ याज्ञ०.
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४. तस्य च व्यवहारो वेदो धर्मशास्त्राण्यंगान्युपवेदाः पुराणम् । गौ० (११।१६) ।
५. अष्टका श्राद्धों के लिए देखिये आश्वलायनगृह्यसूत्र ( २/४ 1१ ); शांखायन गृह्यसूत्र ( ३।१२- १४ ) ; पारस्करगृह्यसूत्र ( ३३ )
६. तालाब, प्रपा आदि के लिए देखिये इस ग्रन्थ का खंड २ अध्याय २६ एवं चौल में शिखा के लिए देखिये खंड २, अध्याय ६ ।
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