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________________ सदाचार अध्याय ३२ परम्पराएँ एवं आधुनिक परम्परागत व्यवहार गौतमएवं उनके पश्चात्कालीन बहुत से लेखकों ने धर्म के उद्गमों के विषय में विचार किया है। गौतम(१।१-२) का कथन है--"वेद धर्म का मूल (उद्गम) है और वेदज्ञों का शील (या व्यवहार) एवं परम्पराएँ (या स्मृतियाँ) भी (मूल) हैं।" इसी प्रकार आप० ध० सू० (१।१।१।१-२) ने कहा है--"हम सामयाचारिक धर्मों (परम्पराओं एवं आचार-रीतियों से उद्भावित कर्मों) की व्याख्या करेंगे; (धर्मों की जानकारी के लिए) धर्मज्ञों एवं वेदज्ञों के आचरण (परम्पराएं, व्यवहार या रीतियाँ) प्रमाण हैं।" वसिष्ठ (१।४-७) ने व्यवस्था दी है--"धर्म की घोषणा वेद एवं स्मृतियाँ करती हैं (धर्म श्रुति-स्मृतिविहित है); इनके अभाव में (धर्म क्या है इसकी जानकारी के लिए) शिष्टों का आचार ही प्रमाण है; शिष्ट वे हैं जिनका हृदय (सांसारिक) इच्छाओं से रहित हो और शिष्टों के वे कर्मधर्म हैं जिनके पीछे कोई (लौकिक) कारण या वृत्ति न निहित हो।" २ मनु (२।६) एवं याज्ञ० (१७) ने घोषित किया है कि वेद (श्रुति), स्मृति एवं शिष्टों का आचार धर्म के प्रमुख मूल हैं। इन ग्रन्थों में प्रयुक्त शब्द 'शोल', 'समय', 'आचार' या 'सदाचार' या 'शिष्टाचार' (अन्तिम तीनों का एक ही अर्थ है) विचारणीय है। आपस्तम्ब ने 'समय' एवं 'आचार' दोनों शब्दों का व्यवहार किया है,जिनमें 'समय' का सम्भवतः अर्थ है 'समझौता या परम्परा या प्रयोग', और 'आचार' का अर्थ है 'व्यवहार या रीति' । 'परम्परा' (कस्टम) में प्राचीनता की झलक है, किन्तु 'प्रयोग' अथवा 'रीति' में ऐसी बात नहीं है । 'प्रयोग' अथवा 'रीति' कुछ दिनों पूर्व से प्रचलित हो सकती है, या वह कुछ लोगों के दल के समझौते के रूप में हो सकती है, यथा व्यापारियों आदि का कोई नियम, रीति या समझौता । अब हमें यह देखना है कि धर्म के मूल के रूप में 'आचार' या 'शिष्टाचार' या 'सदाचार' का क्या तासर्य है । इन शब्दों के अर्थ की ओर आपस्तम्ब एवं वसिष्ठ द्वारा प्रयुक्त 'प्रमाण' से संकेत मिल जाता है । जिस प्रकार वेद एवं स्मृतियाँ धर्म के विषय में १. वेदो धर्ममूलम् । तद्विदां च स्मृतिशीले। गौ० (१।१-२); अथातः सामयाचारिकान्धर्मान व्याख्यास्यामः । धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाश्च । आप० घ. सू० (१।१।१।१-३); श्रुतिस्मृतिविहितो धर्मः । तदलाभे शिष्टाचारः प्रमाणम् । शिष्टः पुनरकामात्मा । अगृह्यमाणकारणो धर्मः। वसिष्ठ० (१।४-७); श्रुतिः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः । सम्यक् संकल्पजः कामो धर्ममूलमिदं स्मृतम् ।। याज्ञ० (१७); वेदोऽखिलो धर्म नूलं स्मतिशीले च तद्विदाम् । आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ॥ मनु (१।६)। २. शिष्टों को विशेषताओं के विषय में देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय २८, जहाँ बौधा घ० सू०, मनु, मत्स्यपुराण आदि की उक्तियों को चर्चा की गयी है। तैत्ति० सं० (१।११) ने सम्भवतः सर्वप्रथम 'शिष्ट' की परिभाषा दी थी। www.jainelibrary.org Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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