________________
इच्छापत्र ( वसीयतनामा ) की भावना
६११
प्राचीन १८ न्याय-विषयों ( पदों) में अन्तिम व्यवहारपद है प्रकीर्णक, जिसे विष्णुधर्मसूत्र (४२।१) ने य कहा है-- " यदनुक्तं तत्प्रकीर्णकम् ।" इसे नारद ने उन विषयों के अन्तर्गत रखा है जिन्हें राजा अपनी ओर से उदभावित करता है । इसके विषय में हमने पहले ही विवेचन कर लिया है ।
व्यवहार के इस परिच्छेद में हम इच्छापत्र या संकल्पों (विलों) के विषय में भी कुछ लिख देना उचित समझते हैं। प्राचीन भारत में संयुक्त परिवार एवं दत्तक प्रथा के कारण इच्छापत्र या वसीयतनामे के व्यवस्थापन की परम्परा न चल सकी । कौटिल्य, बृहस्पति, कात्यायन आदि ने लेख्यपत्रों (डाकूमेण्टों) के प्रकारों में कोई ऐसा लेख्य नहीं प्रस्तुत किया जिसे हम आधुनिक शब्द ' विल' के अर्थ में ले सकें। किन्तु ऐसी बात नहीं है कि अंग्रेजों के आगमन के पूर्व इस प्रकार की भावना का उदय लोगों के मन में नहीं हुआ था । मुसलमानों में यह प्रथा थी और उनके सम्बन्ध से इस भावना का उदय होना स्वाभाविक था । मरते समय व्यक्ति मौखिक या लिखित रूप में अपने उत्तराधिकारियों से सम्पत्ति के विषय में कुछ अवश्य कहता था । आठवीं शताब्दी के प्रथम भाग में काश्मीर के राजा ललितादित्य ने राजनीतिक इच्छापत्रता का परिचय दिया था, ऐसा 'राजतरंगिणी' के श्लोकों (३४१ - १५६ ) से झलकता है । कात्यायन ( ५६६) ने आधुनिक 'विल' की भावना की ओर संकेत किया है--"यदि धार्मिक कृत्य के लिए कोई व्यक्ति स्वस्थ रूप में या आर्त ( रोगी) के रूप में दान करने का वचन देता है तो उसे बिना दिये उसके मर जाने पर पुत्र को उसे देना चाहिये ।"" यहाँ केवल इच्छा की घोषणा मात्र पुत्र या उत्तराधिकारी के लिए मान्य ठहरायी गयी है इस विषय में देखिये नाटो बाबाजी का पत्र ( भारत - इतिहाससंशोधक मण्डल, पूना, जिल्द २०, पू० २१० ) जिसमें मृत्यु-पत्र या इच्छापत्र का परिचय मिलता है, यथा-- अन्त्येष्टि-क्रिया, श्राद्ध के व्यय, पतोहू की व्यवस्था, एक अन्य विधवा की व्यवस्था, सम्बन्धियों के पुत्रों के विवाह एवं सम्पत्ति के शेषांश के विभाजन के विषय
सब कुछ वर्णित है ।
ब्रिटिश राज्य के न्यायालयों के समक्ष आनेवाले इच्छापत्रों में कुख्यात अमीचन्द का मृत्यु-पत्र अपना विशेष महत्त्व रखता है । बंगाल रेग्यूलेशन एक्ट ११ (१७६३) ने ज्येष्ठ पुत्र या आगे के उत्तराधिकारी या किसी अन्य पुत्र या उत्तराधिकारी या किसी एक व्यक्ति या कई व्यक्तियों के लिए इच्छापत्र से अधिकार की प्राप्ति की आज्ञा दे दी है। बम्बई के एक विवाद में सन् १७८६ ई० में इस विषय में छूट दे दी गयी । बम्बई के रेकर्डर न्यायालय के एक पण्डित ने सन् १८१२ ई० में यह कह डाला कि शास्त्रों में 'विल' की कोई व्यवस्था नहीं है, अतः ऐसा नहीं किया जाना चाहिये । हम इस ग्रन्थ में इसके विषय में और कुछ नहीं लिखेंगे ।
५. स्वस्थेनार्तेन वा देयं श्रावितं धर्मकारणात् । अदत्त्वा तु मृते दाप्यस्तत्सुतो नात्र संशयः । कात्या० (अपर्क पृ० ७८२; वि० वि० पृ० १६; प० म० पृ० २०६ ) |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org