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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास प्राप्त होती है, किन्तु उसे पोष्य स्त्रियों, नौकर-चाकरों के भरण-पोषण, अन्त्येष्टि-क्रिया एवं श्राद्ध-कर्म के व्यय के लिए प्रबन्ध कर देना होता है।"३ कौटिल्य (३।५, पृ० १६१) ने भी ऐसा ही कहा है--"श्रोत्रियों की सम्पत्ति छोड़कर अन्य उत्तराधिकारहीन व्यक्तियों की सम्पत्ति को राजा ले लेता है, किन्तु मृत व्यक्तियों की स्त्रियों, अन्त्येष्टि-क्रिया एवं दरिद्र आश्रितों की जीविका के लिए धन छोड़ देना पड़ता है।"४ मिताक्षरा, व्य० मयख, परा० मा० आदि ने नारद एवं कात्यायन की उक्तियों में 'योषित' एवं 'स्त्री' शब्दों को अवरुद्धा स्त्री के अर्थ में लिया है, क्योंकि 'पत्नी' (नियमानुक्ल वहाँ नहीं आया है। अवरुद्धा स्त्री के अर्थ को लेकर निर्णीत विवादों में बड़ी विभिन्नता रही है। इसे उस स्त्री के अर्थ में सामान्यतः प्रयुक्त किया गया है जो व्यक्ति की मृत्य तक रखैल रूप में रहती है। ऐसी रखैलों को भरण-पोषण के अधिकार की प्राप्ति के लिए प्रेमी की मृत्यु के उपरान्त सदाचारिणी रहना परमावश्यक ठहराया गया है। उन्हें कुछ निर्णयों द्वारा स्पष्ट रूप से रखैल के रूप में प्रेमी के घर में रहना भी आवश्यक ठहराया गया है, किन्तु प्रिवी कौंसिल ने इसे आवश्यक नहीं समझा है । रखैल का अपना पति भी हो सकता है। इन निर्णयों में विभेद भी रहा है। मिताक्षरा' ने याज्ञ० (२।२६०) की व्याख्या में (जहाँ यह आया है कि 'उस व्यक्ति को ५० पण दण्ड रूप में देने पड़ते हैं जो अवरुद्धा दासियों या भुजिष्या दासियों तथा अन्यों अर्थात् वेश्या या स्वैरिणी के साथ संभोग करते हैं, यद्यपि सामान्यतः दासियों आदि से संभोग करने पर दण्ड नहीं मिलता) तीन प्रकार की नारियों, यथा--अवरुद्धा एवं भुजिष्या दासी, वेश्या एवं स्वैरिणी (जो अपने पति को छोड़कर अन्य को ग्रहण करती है) के साथ संभोग करने पर एक ही प्रकार का दण्ड लगाया गया है। देखिये याज्ञ० (१।६७) । नवीन वेश्या एवं स्वैरिणी भी रखैल के रूप में रखी जा सकती हैं । अतः यदि कोई अन्य उनके साथ संभोग करता है तो वह दण्डित होता है। 'मिताक्षरा' ने अवरुद्धा दासी को उस दासी के अर्थ में लिया है जो अपने स्वामी को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति से संभोग नहीं कर सकती, और जो स्वामी के घर में ही रहती है। 'मिताक्षरा' के मत से भुजिष्या दासी वह है जो कुछ निश्चित व्यक्तियों के विषय-भोग के लिए ही नियन्त्रित हो (पुरुषनियक्त-परिग्रहा भुजिष्या)। अवरुद्धा एवं भुजिष्या में विशेष अन्तर यह है कि प्रथम स्वामी के घर में रहती है और वह उसी से संभोग कर सकती है, किन्तु दूसरी स्वामी के अतिरिक्त अन्य निश्चित लोगों (यथा--मित्र या कुल के अन्य लोगों) के साथ भी संभोग कर सकती है और उसके लिए घर में ही रहना आवश्यक नहीं है। यह व्याख्या 'मिताक्षरा' की टीका में है न कि निबन्ध में। ____आजकल संयुक्त परिवार की विधवा के उसी घर में रहने के अधिकार के विषय में, मृत पति के स्वत्वहीन पिता से तथा श्वशुर के उत्तराधिकारियों से प्राप्त होनेवाले पतोहू के अधिकार के विषय में, विधवा की जीवनवृत्ति की यात्रा के विषय में, जीवन-वृत्ति (भरण-पोषण) के अवशिष्टांश की प्राप्ति आदि के विषय में बहुत-से निर्णीत विवाद पाये जाते हैं। किन्तु इस ग्रन्थ से उनका कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि वे स्मृतियों एवं निबन्धों के आधार पर निर्णीत नहीं हुए हैं। ३. अन्यत्र ब्राह्मणात किन्तु राजा धर्मपरायणः । तत्स्त्रीणां जीवनं दद्यादेष दायविधिः स्मृतः ॥ नारद (दायभाग, ५२); मिताक्षरा (याज्ञ० २११४) एवं परा० मा० (३, पृ० ५३५) ने इसे उद्धृत किया है। अदायिक राजगामि योषिभृत्योर्ध्वदेहिकम् । अपास्य श्रोत्रियद्रव्यं श्रोत्रियेभ्यस्तदर्पयेत् ॥ कात्यायन (मिता० याज्ञ० २।११४; परा० मा० ३, पृ० ५३५; व्य० म० पृ० १३६) । ४. अदायादक राजा हरेत् स्त्रीवृत्ति-प्रेत-कदर्यवर्जमन्यत्र श्रोत्रियद्रव्यात् । तत् विवेभ्यः प्रयच्छत् । को. (३५, पृ० १६१)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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