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अवैध सतान एव उपपत्नी के भरण-पोषण का अधिकार
૪: त्याग हो जाता है) तभी कार्यान्वित होती है जब स्त्री प्रायश्चित्त नहीं करती; (२) व्यभिचार कराने पर ( जब कि वह बहुत घृणित न हो, जैसा कि वसिष्ठ० २१1१० में उल्लिखित है) स्त्री को केवल उतना ही भोजन दिया जाना चाहिये जिससे कि वह जीवित रह सके और उसे घर के पास किसी झोपड़ी में सुरक्षित रखना चाहिये (याज्ञ० १।७० एवं ३।२६६ ), भले ही वह आवश्यक प्रायश्चित्त न करे । किन्तु 'मिताक्षरा' उस विधवा के भरण-पोषण के विषय में मौन है, जिसने पहले व्यभिचार का जीवन व्यतीत किया किन्तु आगे चलकर जिसने अपना जीवन सुधार लिया । किन्तु मनु (११।१८६ ) के कथन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उस विधवा को, जिसने घृणित व्यभिचार न किया हो, आगे चलकर जिसने उचित प्रायश्चित कर लिया हो और जो अब अनिन्दित जीवन व्यतीत कर रही हो, साधारण भरण-पोषण का अधिकार मिल सकता है ।
आरम्भिक काल से ही तीन उच्च जातियों के व्यक्तियों द्वारा शूद्रा रखैल से उत्पन्न अवैधानिक संतानों के भरण-पोषण का अधिकार स्वीकृत रहा है। गौतम (२८१३७) का कथन है- "किसी व्यक्ति की शूद्रा नारी से उत्पन्न पुत्र को, यदि वह सन्तानहीन हो एवं आज्ञाकारी हो, भरण-पोषण उसी प्रकार मिलना चाहिये जैसा कि शिष्य को मिलता है ।" यही बात गौतम ( २८|४२ ) ने प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न संतानों के लिए भी कही है । मनु ( ६ । १५५ ) ने उस पुत्र को, जो तीन उच्च वर्णों के पुरुष की अविवाहिता शूद्रा से उत्पन्न हुआ है, पैतृक सम्पत्ति के भाग का अधिकारी नहीं माना है । बृहस्पति का कथन है कि यदि पुत्रहीन व्यक्ति को शूद्रा से अपना पुत्र हो तो उसे भरण-पोषण मिलना चाहिये, किन्तु मृत की सम्पत्ति सपिण्डों को मिल जाती है। 'मिताक्षरा' एवं 'व्य० मयूख' ने याज्ञ० (२।१३३ - १३४ ) की व्याख्या में कहा है कि दासी शूद्रा से उत्पन्न अवैधानिक पुत्र को पिता की इच्छा से या मरने के उपरान्त भी आधी सम्पत्ति नहीं मिलनी चाहिये, उसे केवल भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त होता है ।
उपर्युक्त कथन के विषय में बहुत से आधुनिक निर्णय हैं, किन्तु हम उनका विवेचन यहाँ नहीं करेंगे। भरणपोषण का अधिकार लोकप्रसिद्ध पिता की ( जिससे अवैधानिक पुत्र उत्पन्न होता है) पृथक् सम्पत्ति पर ही सर्वप्रथम निर्भर है, किन्तु यदि पिता संयुक्त परिवार के सदस्य के रूप में ही मृत हो जाता है तो उस के अवैधानिक पुत्र को संयुक्त सम्पत्ति में से भरण-पोषण का अधिकार मिलता है। यह कोई आवश्यक नहीं है कि स्त्री दासी हो या स्थायी रूप से रखेल (उपपत्नी) हो । संभोग - सम्बन्ध व्यभिचार का द्योतक हो तब भी आजकल उससे उत्पन्न पुत्र को भरणपोषण मिलता है । अवैधानिक पुत्र का भरण-पोषण सम्बन्धी अधिकार व्यक्तिगत होता है, उसका स्थानान्तरण उसके पुत्र को नहीं होता। इतना ही नहीं, भरण-पोषण का अधिकार मृत्यु पर्यन्त रहता है, न कि बालिग होने तक । किन्तु बंगाल में दूसरा ही कानून है । स्मृति वचनों में 'शूद्रापुत्र' शब्द पुल्लिंग है अतः वहाँ भरण-पोषण सम्बन्धी हिन्दू व्यवहार में अवैधानिक पुत्री को भरण-पोषण का अधिकार नहीं प्राप्त रहा है ।
हिन्दू व्यवहार के अन्तर्गत रखैल के भरण-पोषण सम्बन्धी अधिकार के विषय में बहुधा विवाद चलते रहे हैं । ऐसा निर्णय होता रहा है कि रखेल को अपने प्रेमी के रहते भरण-पोषण प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि वह उसे कभी भी छोड़ सकता है और वह अपने को रखने के लिए उसे बाध्य नहीं कर सकती। अपने जीवन काल में कोई हिन्दू संयुक्त परिवार का धन उसके लिए नहीं स्थानान्तरित कर सकता । किन्तु जब रखेल अपने प्रेमी के साथ उसके जीवन भर रह जाय तो उसे भरण-पोषण मिलने का पूर्ण अधिकार रहता है, अर्थात् जो लोग मृत प्रेमी का दायांश या स्वार्जित सम्पत्ति प्राप्त करते हैं उन्हें वैसी रखैल के लिए प्रबन्ध करना पड़ता है। नारद एवं कात्यायन के वचन इस विषय में प्रामाणिक रहे हैं। नारद ( दायभाग, ५२ ) का कथन है-- " धर्मपरायण राजा को चाहिये कि वह मृत व्यक्ति की स्त्री के भरण-पोषण का प्रबन्ध करे ( जब कि राजा को किसी का धन प्राप्त होता है, किन्तु मृत ब्राह्मण पुरुष के विषय में ऐसी बात नहीं है ) ।" कात्यायन (६३१ ) की उक्ति है -- उत्तराधिकारहीन सम्पत्ति राजा को
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