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________________ ६४८ धर्मशास्त्र का इतिहास तक उनके भरण-पोषण का प्रबन्ध करते हैं, किन्तु ऐसा तभी होता है जब कि पत्नियाँ सदाचारिणी होती हैं, अन्यथा नहीं (स्मृतिच० २, पृ० २६२; व्य० प्र०, पृ० ५१६) । कात्यायन (६२२) का कथन है कि पति के मरने पर संयुक्त परिवार वाली पत्नी को भोजन-वस्त्र मिलना चाहिये या उसे मृत्यु पर्यन्त सम्पत्ति का एक भाग मिलना चाहिये । भारतीय उच्च न्यायालयों ने भी इस नियम का अनुसरण किया है। इसी प्रकार उक्त उत्तराधिकारी का यह कर्तव्य है कि वह उन लोगों का भरण-पोषण करे जिन्हें मृत व्यक्ति नैतिकता एवं वैधानिकता की दृष्टि में पालित-पोषित करने के लिए उत्तरदायी था। जो लोग रिक्थ एवं विभाजन से वंजित रहते हैं वे तथा उनकी पत्नियाँ एवं कुमारी कन्याएँ भरणपोषण की अधिकारिणी होती हैं। देखिये याज्ञ० (२।१४०-१४२), मनु (६।२०२) एवं वसिष्ठ (१७॥५४) । बौधा० (२।२।४३-४६) ने व्यवस्था दी है कि जो लोग बूढ़े हैं, जन्मान्ध, मूर्ख, क्लीब, बुरा कर्म करनेवाले एवं असाध्य रोग से पीड़ित तथा निषिद्ध कर्मों में रत रहते हैं उन्हें भोजन-वस्त्र मिलना चाहिये, किन्तु पतित एवं उसकी सन्तान को नहीं। यही बात दूसरे ढंग से देवल ने भी कही है (व्य० मयूख, पृ० १६५)। ____ बात वास्तव में यह है और यही सामान्य सिद्धान्त भी है कि जिसकी सम्पत्ति उत्तराधिकार के रूप में ली जाती है उसके उत्तरदायित्व का बोझ भी ग्रहण करना होता है, अर्थात् नये उत्तराधिकारी को उसके आश्रितों के भरणपोषण का प्रबन्ध करना पड़ता है। उदाहरणार्थ, यदि पैतृक सम्पत्ति न हो तो श्वशुर अपनी स्वाजित सम्पत्ति द्वारा वैधानिक रूप से पतोहू (मृत पुत्र की विधवा) के भरण-पोषण के लिए उत्तरदायी नहीं है; किन्तु उसकी मत्यु के उपरान्त उसके उत्तराधिकारी अर्थात् कोई पुन, विधवा या पुत्री का यह कर्तव्य है कि वे विधवा पतोह की जीविका चलायें। जीवन-भरण के अधिकार पर व्यभिचार का क्या प्रभाव पड़ता है ? इस विषय में पत्नी के अधिकार के बारे में देखिये इस ग्रन्थ का खंड २, अध्याय ११ । मनु (११।१७५) के मत से व्यभिचारिणी पत्नी पति द्वारा अपने घर में बन्दी बना ली जाती है और उसे वही प्रायश्चित्त करना पड़ता है जो व्यभिचारी पुरुष के लिए व्यवस्थित है। याज्ञ० (१७०) का कहना है कि व्यभिचारिणी पत्नी अपना पत्नीत्व खो बैठती है, उसकी सम्पनि छीन ली जाती है और उसे धार्मिक कृत्यों से वंचित होना पड़ता है, उसे केवल भरण-पोषण मिलता है तथा घर के किसी भा पडता है। कुछ परिस्थितियों में व्यभिचार के कारण हिन्द्र व्यवहार के अन्तर्गत हिन्दू विधवा को जीविका से भी हाथ धोना पड़ता है । वसिष्ठ (२१।१०) ने व्यवस्था दी है कि निम्न चार कोटियों की पत्नियों को त्याग देना चाहिये-- या गरु से संभोग कराये या वह जो पति की हत्या करने का प्रयत्न करे या वह जो किसी नीच जाति के व्यक्ति से व्यभिचार कराये। वसिष्ठ (२१।१२) ने यह भी कहा है कि यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य की पत्नियाँ किसी शूद्र से संभोग करायें तो यदि उन्हें सन्तानोत्पत्ति न हुई हो तो वे प्रायश्चित्त द्वारा पवित्र की जा सकती हैं। याज्ञ० (१।७२) का कथन है कि यदि तीन उच्च वर्गों की नारी शूद्र से व्यभिचार कराकर गर्भिणी हो जाय या गर्भपात करा ले या पति की हत्या का प्रयत्न करे या महापाप (ब्रह्म-हत्या, सुरापान आदि) करे तो उसे त्याग देना चाहिये । मनु (६१८८) ने व्यवस्था दी है कि यदि स्त्री पतित हो जाय तो घटस्फोट कराना चाहिये । किन्तु उसे भोजन-वस्त्र मिलना चाहिये और कुल-गृह के पास एक झोपड़ी में उसे रखना चाहिये । यही बात याज्ञ० (३।२६६) ने भी कही है। इन सबको प्रायश्चित कर लेने के उपरान्त सामाजिक सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं। देखिये मनु (११।१८६) एवं 'मिताक्षरा' (याज्ञ० १।७२) । याज्ञवल्क्य (३।२६७) के मत से स्त्रियों के विषय में तीन विशिष्ट महापातक है; नीच जाति से व्यभिचार कराना, गर्भपात कराना एवं पति-हत्या का प्रयत्न करना। 'मिताक्षरा' ने इस उक्ति की व्याख्या करते हुए निम्न बातें कही है-"(१) वसिष्ठ (२१।१०) द्वारा व्यवस्थित दण्ड-विधि (अर्थात् चार महापातकों के कारण स्त्री का पूर्ण www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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