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________________ अध्याय ३१ जीवन-वृत्ति (भरण-पोषण) तथा अन्य विषय आधुनिक हिन्दू व्यवहार में भरण-पोषण का विषय बहुत ही महत्त्वपूर्ण रहा है । अतः इस विषय में स्मृतियों एवं निबन्धों द्वारा निर्धारित व्यवहार की चर्चा आवश्यक हैं। कुछ व्यक्तियों के भरण-पोषण के उत्तरदायित्व का उदय प्राचीन व्यवहार के अन्तर्गत दो ढंगों से होता है; (१) दोनों दलों में केवल सम्बन्ध के कारण, या (२) सम्पत्ति-प्राप्ति की स्थिति के कारण । 'मेधातिथि' (मनु ३।७२; ४।२५१) एवं 'मिताक्षरा' (याज्ञ० १।२२४; २।१७५) द्वारा उद्धृत एवं 'मनुस्मृति' की कुछ पाण्डुलिपियों में (११। १० के उपरान्त) पाये जाने वाले एक श्लोक में आया है--'मनु ने घोषित किया है कि एक सौ बुरे कर्मों के सम्पादन से भी वृद्ध माता-पिता, साध्वी पत्नी एवं शिशु का भरण-पोषण करना चाहिये ।" इससे स्पष्ट है कि चाहे सम्पत्ति हो या न हो, पिता का यह कर्तव्य है कि वह शिशु का पालन करे, पति का यह कर्तव्य है कि वह अपनी पतिव्रता स्त्री का भरण-पोषण करे और पुत्र का यह कर्तव्य है कि वह अपने वृद्ध माता-पिता का संवर्धन करे । 'बौधायन' ने तो यहाँ तक कह डाला है कि पतित माता का भी भरण-पोषण करना पुत्र का कर्तव्य है।' यही बात आप०धर्म सूत्र (१।१०२८६) एवं वसिष्ठ (१३।४७) ने भी कही है। मनु (८।३८६) ने व्यवस्था दी है कि यदि माता-पिता, पत्नी एवं पूत्र पतित न हों और उन्हें कोई छोड़ दे या उनका भरण-पोषण न करे तो उसको राजा द्वारा ६०० पणों का दण्ड देना चाहिये । नारद ने भी ऐसे पति के लिए दण्ड-व्यवस्था दी है। याज्ञ० (१७६) का कथन है कि यदि कोई अपनी आज्ञाकारिणी, परिश्रमी, पुत्रवती एवं मृदुभाषिणी पत्नी को छोड़ देता है, तो उसे सम्पत्ति का एक तिहाई भाग देना चाहिये और यदि सम्पत्ति न हो तो उसके भरण-पोषण का प्रबन्ध करना चाहिये । विष्णु० (५।१६३) के मत से उस व्यक्ति को चोर का दण्ड मिलना चाहिये, जो अपनी निरपराध पत्नी को छोड़ देता है। कौटिल्य (२११) ने उस पर १२ पणों का दण्ड लगाया है जो अपने अपतित बच्चों, पत्नी, माता-पिता, छोटे भाइयों एवं बहिनों, कुमारी कन्याओं, विधवा पुत्रियों का भरण-पोषण नहीं करता। आज भी इन वचनों को मूल्य दिया गया है । संयुक्त परिवार के व्यवस्थापक का यह वैधानिक कर्तव्य है कि वह कुल के सभी सदस्यों एवं उनकी पत्नियों तथा बच्चों के जीविका-साधन का प्रबन्ध करे । नारद का कथन है कि यदि संयुक्त परिवार के कतिपय सदस्यों में कोई सन्तानहीन मर जाय या संन्यासी हो जाय तो अन्य सदस्य उसका भाग पा जाते हैं और उसकी पत्नियों की मत्य १. वृद्धौ च मातापितरौ साध्वी मार्या सुतः शिशुः । अप्यकार्यशतं कृत्वा मर्तव्या मनुरब्रवीत् ॥मेधा० (मनु ४।२५१); मिता. (याज्ञ० २।१७५)। २. पतितामपि तु मातर बिभूयादनभिभाषमाणः । बौ० ध० सू० (२।२।४८); पतितः पिता परित्याज्यो माता तु पुत्र न पतति । वसिष्ठ० (१३।४७); अत्याज्या माता च पिता सपिण्डा गुणवन्तः सर्वे वात्याज्याः । यस्त्यजेत् कामा वपतितान् स दण्डं प्राप्नुयाद द्विगुणं शतम् । शंखलिखित (अपरार्क पृ० ८२३, याज्ञ० २।२३७ पर)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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