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धर्मशास्त्र का इतिहास
(६) पुत्रियों के पुत्र ; (७) पुत्रों के पुत्र ; (८) पुत्रों के पौत्र ; (६) विमाता-पुत्र ; (१०) एवं (११) विमातापुन (सौतेले पुत्र) के पुत्र एवं पौत्र । जब विवाह अनुमोदित विवाह-प्रकार से हुआ रहता है तो ऊपर वालों के अभाव में यौतक धन के उत्तराधिकार का अनुक्रम यों है--पति, भ्राता, माता एवं पिता। किन्तु अननुमोदित विवाह-प्रकार से विवाहित होने पर स्त्रीधन क्रम से माता, पिता, भ्राता एवं पति को मिलता है । अन्वाधेय दान, जो विवाहोपरान्त पिता द्वारा प्राप्त होता है, 'दायभाग' (४।२।१२-१६, पृ० ६२-६३) के अनुसार यौतक की भांति ही देय होता है, केवल कुछ बातों में अन्तर है, यथा--विवाहित पुत्रियों के पूर्व पुत्र को मिलता है, सन्तानहीन होने पर क्रम से भ्राता, माता, पिता एवं पति को मिलता है । अयौतक (उपर्युक्त तीन प्रकार के स्त्रीधन के अतिरिक्त अन्य प्रकार) के विषय में 'दायभाग' (४१२।१-१२, पृ० ७६-८१) तथा रघुनन्दन एवं श्रीकृष्ण में विभेद पाया जाता है । 'दायभाग' के मत से वह पुत्र एवं कुमारी पुत्री को; इनके अभाव में उन विवाहित पुत्रियों को, जो पुत्र वती हैं या पुत्रवती होनेवाली हे; पौत्रों; दौहित्रों, बन्ध्या एवं विधवा पुत्रियों को प्राप्त होता है। किन्तु रघुनन्दन एवं श्रीकृष्ण ने उपर्युक्त क्रम में दौहित्रों एवं वन्ध्या तथा विधवा पुत्रियों के बीच में पौत्र, प्रपौत्र, विमाता-पुत्र, विमाता-पौत्र, विमाता-प्रपौत्र को रख दिया है। आज कल के निर्णीत विवादों में अन्तिम मत का अनुसरण किया गया है।
यदि उपर्युक्त लोगों में कोई न हो तो 'दायभाग' (४।३१७ पृ. ६८) के मत से यौतक एवं अयोतक स्त्रीधन क्रम से निम्न छ: उत्तराधिकारियों को प्राप्त होता है--देवर (पति के छोटे भाई), देवर-पुत्र, बहिन के पुत्र, पति की बहिन (ननद) के पुत्र , भतीजे, दामाद को। बृहस्पति का कथन है कि मातुःष्वसा (मौसी), मातुलानी (मामी), पितृव्यस्त्री (चाची), पितृष्वसा (फूफी), श्वश्रू (सास), पूर्वजपत्नी (भाभी) अपनी माता के समान (मातृतुल्य) घोषित हैं। जब इन स्त्रियों को औरस पुत्र नहीं होता या सौतेला पुत्र या दौहित्र या पौत्र या विमाता-पौत्र (सौतेला पौत ) नहीं होता तो बहिन के पुत्र आदि उनके धन को ग्रहण करते है। 'दायभाग'ने बृहस्पति के उपर्युक्त कथन में पिण्डदान कर्म करनेवालों को वरीयता दी है । बृहस्पति ने बहिन के भाई को वरीयता दी है, किन्तु वास्तव में पति का छोटा भाई (देवर) ही पिण्डदान के अनुसार वरीयता प्राप्त कर सकता है । और देखिये व्य० प्र० (पृ० ५५४) जहाँ यह घोषित है कि उपर्युक्त छ: के उपरान्त पति के सपिण्ड, सकुल्य एवं समानोदक तथा अन्त में पिता के सम्बन्धी उत्तराधिकार पाते हैं।
दायभाग के अन्तर्गत व्यभिचारिणी पुत्री को उत्तराधिकार नहीं मिलता। किन्तु 'मिताक्षरा' ने उस व्यभिचारिणी पुत्री को, जो किसो की रखैल है या वेश्या है, उत्तराधिकार दिया है, किन्तु कुमारी या विवाहित पुत्रियों के उपरान्त ही उसे ऐसा अधिकार प्राप्त हो सकता है । 'मिताक्षरा' (याज्ञ० २।२६०) ने इस विषय में 'स्कन्दपुराण' की एक उक्ति को मान्यता दी है--'कुछ अप्सराओं से उत्पन्न पांचवीं जाति में वेश्याएँ आती है ।'• आधुनिक काल के न्यायालयों ने कहा है कि यद्यपि वेश्यावृत्ति हिन्दू व्यवहार (विधान) के आधार पर घृणित मानी गयी है, तथापि उससे रक्त-सम्बन्ध नहीं टूटता । अतः नाचने वाली (नायकिन, वेश्या, पतुरिया) का स्त्रीधन या उस विवाहित स्त्री का धन जो वेश्या हो जाती है, उसके भाई या बहिन या पति या पति के सम्बन्धियों को मिल जाता है।
१. स्मयंते हि स्कन्दपुराणे पंचचूडा नाम काश्चनाप्सरसस्तत्सन्ततिर्वेश्याख्या पंचमी जातिरिति । मिता. याज्ञ० २।२६०)।
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