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धर्मशास्त्र का इतिहास
एवं व्यर्थता का द्योतक है । यदि वे वेद नहीं हैं तो उनका तिरस्कार होना चाहिये, अर्थात् वे अनपेक्ष हैं। इस विरोध का उत्तर यह है— स्मृतियाँ सामान्यतः प्रामाणिक हैं, क्योंकि मनु जैसे वेदानुयायी मनुष्यों द्वारा प्रणीत हैं और वेदों पर आधारित हैं, क्योंकि उन्होंने जो कुछ कहा है वह पीढ़ियों से शिष्टों द्वारा मान्य ठहराया गया है, अतः वेद को उनका मूल कहना सम्भव । एक सिद्धान्त यह है कि स्मृतियों की बातें श्रुति वचनों में भी रही होंगी । कुमारिल ने इस सिद्धान्त का खण्डन किया है । यथा
अनुमान प्रत्यक्ष एवं व्याप्ति ज्ञान पर आधारित होता है । स्मृतियों एवं श्रुतियों के वचनों में कोई व्याप्यव्यापकता नहीं है अतः कोई अनुमान निकालना सम्भव नहीं, क्योंकि ऐसा करना अन्ध परम्परा मात्र हैं। मनु ने अपनी स्मृति का लेखन अपने पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा वेद पर आधारित कर्मों के सहारे ही किया होगा । पूर्ववर्ती आचार्यों ने भी अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का अनुसरण किया होगा । अतः यह अनुमान अन्ध परम्परा का ही द्योतक है । इतना ही नहीं, इस प्रकार का अनुमान प्रत्यक्षीकरण के विरोध में पड़ता है, क्योंकि वास्तव में सैकड़ों श्रुतिवचन ज्ञात हैं, जो स्मृतियों की संगति में बैठ सकते हैं । एक अन्य दृष्टिकोण (जिसे कुमारिल ने पूर्ववर्ती दृष्टिकोण से अच्छा माना है) यह है कि वे वैदिक वचन, जो स्मृतियों के आधार थे, सम्प्रति लुप्त ( उत्सन्न या प्रलीन) हो गये हैं । इस दृष्टिकोण के समर्थन में कुछ वैदिक वचन, यथा अनन्ता वै वेदाः ( तै० सं० ३।१०।११एवं आ० ध० सू० १।४।१२।१० ) मिल जाते हैं । किन्तु 'तन्त्रवार्तिक' एवं अधिकांश मीमांसकों को यह दृष्टिकोण अगाा है ।
इस दूसरे दृष्टिकोण के विषय में विरोध इस प्रकार प्रकट किया जाता है- बौद्ध आदि अनीश्वरवादी शाखाओं द्वारा भी यह कहा जा सकता है कि उनके वचन भी उन वैदिक वचनों पर आधारित हैं, जो अब लुप्त हो गये हैं । अतः कोई भी अपने सिद्धान्त की प्रामाणिकता यह कहकर सिद्ध कर सकता है कि वह लुप्त वैदिक वचनों पर आधारित है । यदि ऐसा मान लिया जाय तो मीमांसा का यह कथन कि वेद नित्य है, झूठा पड़ जायगा ( क्योंकि वैसा मानने से वेद के कुष्ट अंश अनित्य सिद्ध हो जायेंगे ) । उपर्युक्त दोनों दृष्टिकोणों में विशिष्ट अन्तर नहीं है । अतः कुमारिल ने यह तीसरा दृष्टिकोण उपस्थित किया है-- स्मृतियाँ उन वैदिक वचनों पर आधारित हैं जो आज भी पाये जाते हैं । किन्तु यह दृष्टिकोण भी ग्रामक हैं, क्योंकि स्मृतियों के वचनों का वैदिक मूल प्राप्त करना सम्भव नहीं है और ऐसा कहना कि वैदिक शाखाएँ बहुत-सी हैं, वे चारों ओर बिखरी पड़ी है, वेदानुयायी असावधान हैं, वे घूम-घूमकर वचनों की खोज नहीं करते ( तन्त्रवार्तिक, जैमिनि १ । ३ । २ ) ; केवल बातों का विस्तारवादी दृष्टिकोण है। स्मृति वचनों के आधार श्रुति वचन स्मृतियों में ही क्यों नही पाये जाते ! इस प्रश्न के उत्तर में कुमारिल कहते हैं कि ऐसा करने से श्रुति वचनों के सम्यक् संगठन में गड़बड़ी हो जाती, उनके परम्परागत स्वरूप का ह्रास हो जाता । वेद मुख्यतया यज्ञों की चर्चा करते हैं, हाँ, कहीं-कहीं उनमें मानवाचार सम्बन्धी नियम भी पाये जाते हैं । अतः यदि वेद के वचन स्मृतियों में रखे जाते तो उनके मौलिकस्वरूप में भेद पड़ जाता । विश्वरूप ( याज्ञ ० १ । ७) ने कुमारिल की उपर्युक्त उक्ति उद्धृत की है और कहा है कि स्मृतियों के सहस्रों नियमों का स्रोत वेद में मिलता है । मेधातिथि (मनु २।६ ) ने इस वियय में सविस्तर विवेचन किया है और अपने स्मृतिविवेक ग्रन्थ से कतिपय श्लोक उद्धृत किये हैं। उन्होंने प्रथम के दो दृष्टिकोणों को अमान्य ठहराकर कुमारिल के दृष्टिकोण को उत्तम माना है। मीमांसकों एवं मेधातिथि जैसे टीकाकारों ने कहा है कि मनु एवं अन्य स्मृतिकारों ने उन वैदिक वचनों को, जो इतस्ततः बिखरे पड़े हैं या जिन्हें कतिपय शाखाओं के विद्यार्थी नहीं जानते या जिन्हें साधारण एवं दुर्बल बुद्धि के लोग एक स्थान पर नहीं ला सकते, सरलता से समझ में आ जाने के लिए एकल कर दिया है ।
स्मृतियों की प्रामाणिकता की सिद्धि के उपरान्त एक अन्य प्रश्न उठ खड़ा होता है जब कोई स्मृति - नियम वेद-वाक्य के विरोध में पड़ जाय तो क्या होगा ? जैमिनि ( १|३|३ | ४ ) ने इस प्रश्न का विवेचन किया हैं । शबर ने
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