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स्त्रीधन की परिभाषा
या पति द्वारा अन्य स्त्री से विवाह के समय जो कुछ प्राप्त किया जाय--ये ही स्त्रीधन में गिने जाते हैं और जो कुछ स्त्री के सम्बन्धियों द्वारा पिया जाता है, शुल्क एवं विवाहोपरान्त की भेंट।" और देखिये विष्णु० (१७।१८)।
स्मृतिकारों में कात्यायन ने २७ श्लोकों में स्त्रीधन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उन्होंने मनु, याज्ञ०, नारद एवं विष्णु के छः स्त्रीधन-प्रकारों का वर्णन किया है--"विवाह के समय अग्नि के समक्ष जो दिया जाता है उसे बुद्धिमान लोग अध्यग्नि स्त्रीधन कहते हैं। पति के घर जाते समय जो कुछ स्त्री पिता के घर से पाती है उसे अध्यावहनिक स्त्रीधन कहा जाता है । श्वशुर या सास द्वारा स्नेह से जो कुछ दिया जाता है और श्रेष्ठ जनों को वन्दन करते समय उनके द्वारा जो कुछ प्राप्त होता है उसे प्रीतिदत्त स्त्रीधन कहा जाता है। वह शुल्क कहलाता है जो बरतनों, भारवाही पशुओं, दुधारू पशुओं, आभूषणों एवं दासों के मूल्य के रूप में प्राप्त होता है। विवाहोपरान्त पति-कुल एवं पितृ-कुल के बन्धु-जनों से जो कुछ प्राप्त होता है वह अन्वाधेय स्त्रीधन कहलाता है। भृगु के मत से स्नेहवश जो कुछ पति या माता-पिता से प्राप्त होता है वह अन्वाधेय कहलाता है।" कात्यायन द्वारा प्रस्तुत अध्यग्नि एवं अध्यावहनिक की परिभाषाओं में वे भेंट भी सम्मिलित हैं जो विवाह के समय आगन्तुकों द्वारा प्रदत्त होती हैं। वह सौदायिक कहा जाता है जो विवाहित स्त्री या कुमारी को अपने पति या पिता के घर में मिल जाता है या भाई से या माता-पिता से प्राप्त होता है।
कात्यायन की उपर्युक्त परिभाषाएँ सभी निबन्धों को मान्य हैं । यहाँ तक कि दायभाग ने भी उनका अनुमोदन किया है। कुछ भाषान्तर-सम्बन्धी एवं परिभाषा-सम्बन्धी भिन्नताएँ निम्न हैं--'मिताक्षरा' के अनुसार अध्यावहनिक में वे भेटें सम्मिलित हैं, जो विवाहित कन्या को विदाई के समय किसी भी व्यक्ति द्वारा प्राप्त होती हैं, किन्तु ‘दायभाग' एवं कुछ अन्य लोगों के मत से इसमें केवल (पैतृकात्) माता-पिता के कुल की भेटें ही सम्मिलित हैं। 'विवादरत्नाकर' (पृ० ५२३) ने इसके अन्तर्गत उन भेंटों को रखा है जिन्हें वधू पिता के घर लौटते समय अपने श्वशुर आदि से पाती है; "विवादचिन्तामणि' (पृ० १३८) के मत से यह वह धन है जो द्विरागमन के समय प्राप्त होता है। और देखिये 'दायभाग' (४।३।१६-२०, पृ०६३), जहां 'दोह्याभरण-कर्मिणाम्' को दूसरे ढंग से समझाया गया है, यथा--वह धन जो गृह-निर्माताओं या स्वर्गकारों द्वारा इसलिए दिया जाय कि स्त्री अपने पति को नयी रचना कराने के लिए प्रेरित करे। व्यास ने इसे यों समझाया है--"यह वह धन है जो किसी स्त्री को इसलिए दिया जाता है कि वह (प्रसन्नतापूर्वक) अपने पति के घर जाने को प्रेरित हो सके।"८"स्मृतिचन्द्रिका एवं व्यवहारप्रकाश'ने शुल्क को उन वस्तुओं का मूल्य माना
७. अध्यग्न्यध्यावहनिक बत्तं च प्रीतिकर्मणि। भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड्विषं स्त्रीधनं स्मृतम् ॥ मनु (१६४), नारद (वायभाग, ८); पितृमातृपतिभ्रातृवत्तमध्यग्न्युपागतम्। आधिवेदनिकाद्यं च स्त्रीधनं परिकीर्तितम् ।। बन्धबत्तं सथा शुल्कमन्वाधेयकमेव च । याज्ञ ० (२१४३-१४४) ।
८. गृहादिकमिमिः शिल्पिभिस्तत्कर्मकरणाय भादिप्रेरणार्थ स्त्रिय यवुत्कोचदानं तच्छुल्कं तदेव मूल्य प्रबृत्यर्थत्वात् । व्यासोक्तं वा यथा । यदा नेतु मर्तृगृहे शुल्कं तत् परिकीर्तितम् । मत गृहगमनार्थमुत्कोचादि यद्दत्त तच्च ब्राह्माविष्वविशिष्टम् । वायभाग (४।३।२०-२१, पृ०६३) ।
६. देखिये विष्णु० (३।३६); याज्ञ० (२।१७३, २६१); वसिष्ठ० (१६३३७); पाणिनि (५१४७); ऋग्वेद (१।१०६२); यास्क (६६); वनपर्व (११५२२३); अनुशासनपर्व (४।१२, एवं २०३१); मनु (३३५, ३॥५४७; अनुशासनपर्व (४६।१-२); वि० चिन्तामणि (पृ० १३६), 'गृहोपस्करादिकरणोपाधिना स्त्रिया गृहपतितो यल्लब्धं तच्छुल्कमित्यर्थः।'
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