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________________ ૪૦ धर्मशास्त्र का इतिहास है जिन्हें वर विवाह के समय या गृहारम्भ करते समय दुलहिन को देता है । 'व्यवहारनिर्णय' ने ( पृ० ४६८) शुल्क को दो अर्थों में लिया है-- ( १ ) वह धन जो कन्या के अभिभावकों को कन्या के मूल्य के रूप में दिया जाय और जिसे कन्या की मृत्यु के उपरान्त माता या भाई ले लेता है; (२) वह धन जो वर द्वारा कन्या को आभूषण एवं गृहो पकरण के मूल्य के रूप में दिया जाता है । कात्यायन ( ६०४ ) का कथन है -- "उस धन पर, जो स्त्री द्वारा शिल्प आदि के लिए या स्नेहवश किसी अन्य से प्राप्त किया जाता है, पति का स्वामित्व रहता है, अन्य शेष स्त्रीधन कहलाता है ।" देखिये 'दायभाग' (४।१।१६ - २०, पृ० ७६ ) ; स्मृतिच० (२, पृ० २८१ ); परा० मा० ( ३, पृ. ५५० ) ; व्य० म० ( पृ० १ ५४) । देवल का कथन है कि वृत्ति ( भरण-पोषण ), आभूषण शुल्क, ऋण व्याज स्त्रीधन है; केवल स्त्री उसका उपभोग कर सकती है, किन्तु आपत्काल में पति उसका उपभोग कर सकता है, अन्यथा नहीं । मनु ( ६ । २०० ) का कथन है कि पति के उत्तराधिकारी पति के रहते स्त्रियों द्वारा पहने गये अभूषणों को नहीं बाँट सकते; यदि वे ऐसा करते हैं तो पाप के भागी होते हैं। देखिये 'व्यवहाररत्नाकर' ( पृ०५०६), 'विवादचिन्तामणि' (१० १३६ ) एवं दायतत्त्व ( पृ० १८४) । सौदायिक कोई विशिष्ट प्रकार का स्त्रीधन नहीं है । कात्यायन एवं 'विवादचिन्तामणि' की परिभाषा के अनुसार यह शब्द स्त्रीधन के कई प्रकारों का द्योतक है। एक प्रकार से यह स्त्रीधन का ही पर्याय है। अधिकांश लेखकों का कहना है कि यह वह धन है जो विवाहित अथवा अविवाहित स्त्री द्वारा अपने पति अथवा माता के घर में अथवा माता-पिता के सम्बन्धियों से प्राप्त किया जाता है (स्मृतिच० २, पृ० २८२; व्य० २० पृ० ५११ ) । 'दायभाग' (४।१।२३, पृ० ७६-७७) एवं 'विवादचिन्तामणि' के मत से सौदायिक में अचल सम्पत्ति को छोड़कर वह सारी सम्पत्ति सम्मिलित है जिसे पत्नी पति से प्राप्त करती है; पत्नी पति की मृत्यु के उपरान्त अचल सम्पत्ति का विघटन नहीं कर सकती । व्यास ने कहा है- "विवाह के समय या उसके उपरान्त स्त्री को अपने पिता या पति से जो कुछ प्राप्त होता है, वह सौदायिक कहलाता है।” 'दायभाग' ( ४११।२२ पृ०७६ ) के मत से 'सौदायिक' शब्द 'सुदाय' से बना है, जिसका अर्थ है "स्नेही सम्बन्धियों से प्राप्त धन ।" "अमरकोश' ने 'सुदाय' को 'यौतक' आदि से प्राप्त भेंट के अर्थ में लिया है। 'यौतक' शब्द का अर्थ क्या है ? मनु ( ६ । १३१ ) ने इसका प्रयोग किया है - "माता का जो यौतक होता है वह कुमारी कन्या को मिलता है ( विवाहित पुत्री या पुत्र को नहीं मिलता है) ।" अतः 'यौतक' स्त्रीधन का द्योतक प्रतीत होता है। स्मृतिच० (२, पृ० २८५), मदन रत्न' एवं 'व्य० मयूख' का कथन है-- "यौतक वह धन है जो स्त्री द्वारा विवाह के समय पति के साथ बैठे रहने पर किसी से प्राप्त होता है।" 'यौतक' शब्द 'युत' ( जुड़ा हुआ या सम्मिलित ) से बना है । याज्ञ० ( २०१४६) ने इसे 'पृथक् किये हुए' के अर्थ में विशेषण के रूप में लिया है। मेधा तिथि ( मनु ६ । १३१ ) ने इसे स्त्री का पृथक् धन अर्थात् स्त्रीधन माना है । और देखिये स्मृतिच० (२, पृ०२८५), 'विवादचिन्तामणि' ( पृ० १४२ ) एवं 'दायतत्त्व' ( पृ० १८६ ) । कौटिल्य ( ३२, पृ० १५२ ) ने शुल्क, अन्वाधेय, आधिवेदनिक एवं बन्धुदत्त को स्त्रीधन के प्रकारों के रूप में लिया है। स्मृतियों के कथनों से व्यक्त होता है कि स्त्रीधन एक प्रकार का ऐसा धन है जिसमें पहले छः प्रकार की सम्पत्ति की गणना होती थी और आगे चलकर वह नौ प्रकार का हो गया तथा कात्यायन के समय में उसमें सभी प्रकार की ( चल या अचल सम्पत्ति सम्मिलित हो गयी, जिसे कोई स्त्री कुमारी अवस्था में या विवाहित होते समय या विवाह के उपरान्त अपने माता-पिता या कुल या माता-पिता के सम्बन्धियों या पति एवं उसके कुल से ( पति द्वारा प्रदत्त अचल सम्पत्ति को छोड़कर) प्राप्त करती है । वह धन जिसे स्त्री विवाहोपरान्त स्वयं ( अपने परिश्रम से ) अर्जित करती है या बाहरी लोगों से प्राप्त करती है, स्त्रीधन नहीं कहलाता । उपर्युक्त विवेचन स्त्रीधन के पारिभाषिक अर्थ से सम्बन्धित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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