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धर्मशास्त्र का इतिहास धर्मसूत्र' (२।२।४६) का कथन है कि कन्याएँ अपनी माता के आभूषण पाती हैं और परम्परा से जो कुछ मिलना चाहिये वह भी उन्हें प्राप्त होता है। 'वसिष्ठधर्मसूत्र'(१७।४६)ने व्यवस्था दी है कि माता को जो कुछ विवाह के समय मिला हो उसे कन्याओं को बाँट लेना चाहिये । शंख (संस्कारप्रकाश,पृ०८५१) ने व्यवस्था दी है कि विवाह के सभी प्रकारों में कन्या को आभूषण एवं स्त्रीधन देना चाहिये। यह हो सकता है कि मनु (८।४१६) ने किसी पुरानी उक्ति की अभिव्यक्ति की है। उनकी उक्ति का शाब्दिक अर्थ बहुत पहले ही छोड़ दिया गया। मनु के कथन का केवल इतना ही अर्थ था कि स्त्रीधन के विषय में (जब तक पत्नी पति की आश्रिता है) पत्नी पति के नियंत्रण के अन्तर्गत है।
स्त्रीधन के अन्तर्गत प्रमुख तीन विषय आते हैं; स्त्रीधन क्या है, स्त्रीधन पर स्त्री का आधिपत्य एवं स्त्रीधन का उत्तराधिकार । इन विषयों में प्रत्येक के बारे में विभिन्न मत हैं और स्त्रीधन-सम्बन्धी विवाद बड़ा ही उलझा हुआ है।
स्त्रीधन के निक्षेपण (न्यसन) के विषय में गौतम के तीन सूत्र हैं, किन्तु उन्होंने न तो इसकी परिभाषा दी है और न इसका विवेचन ही किया है । ५ कौटिल्य (३।२, पृ० १५२) ने परिभाषा दी है--"वृत्ति (जीवन-वृत्ति) एवं आबध्य (जो शरीर में बांधा जा सके, यथा आभूषण, जवाहरात आदि) स्त्रीधन है । वृत्ति अधिक से अधिक दो सहस्र पण हो सकती है, आबध्य का कोई नियम (सीमा) नहीं है।'' मिलाइये कात्यायन (६०२) एवं व्यास "पिता, माता, पति, भ्राता एवं अन्य ज्ञातियों (सम्बन्धियों) को चाहिये कि वे यथाशक्ति दो सहस्र पणों तक स्त्री को स्त्रीधन दें, किन्तु अचल सम्पत्ति न दें। स्मृतिच० एवं व्य० मयूख ने व्याख्या की है कि दो सहस्र पणों की सीमा वार्षिक भेंट तक ही है, किन्तु यदि भेट एक ही बार दी जाय तो अधिक भी दिया जा सकता है और अचल सम्पत्ति भी दी जा सकती है।
स्त्रीधन का शाब्दिक अर्थ है 'स्त्री की सम्पत्ति' । किन्तु प्राचीन स्मृतियों ने इस शब्द को उस प्रकार की सम्पत्ति के विशिष्ट प्रकारों तक सीमित रखा है, जो स्त्री को विशिष्ट अवसरों या जीवन के विभिन्न स्तरों पर प्रदत्त होते हैं। धीरे-धीरे ये प्रकार विस्तार एवं मूल्य में बढ़ते गये। हमें इस अर्थ के स्त्रीधन के विकास एवं विषय-वस्तु का अध्ययन करना है। स्त्रीधन की एक विशेषता यह रही है कि गौतम के काल से आज तक यह प्रथमतः स्त्रियों को ही प्राप्त (न्यस्त) होता रहा है। धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में सबसे पुरानी परिभाषा मनु (६।१६४) की है--"विवाह के समय अग्नि के समक्ष जो कुछ दिया गया, विदाई के समय जो कुछ दिया गया, स्नेह (प्रीति) वश जो कुछ दिया गया, जो कुछ भ्राता, माता या पिता से प्राप्त हुआ--यही छः प्रकार का स्त्रीधन है।" मनु (८1१६५) ने संभवतः एक प्रकार और जोड़ दिया है। अन्वाधेय (बाद में मिलने वाली भेट) । और देखिये नारद (दायभाग, ८) । याज्ञ० (२११४३-१४४) ने स्त्रीधन के निम्न प्रकार दिये हैं--"पिता, माता, पति या भ्राता द्वारा प्रदत्त या जो कुछ विवाह-अग्नि के समक्ष प्राप्त होता है,
४. इत्यतिगहनमुक्तमप्रजः स्त्रीधनम् । दायभाग (४।३।४२, पृ०६६)।
५. स्त्रीधन के विषय में विस्तार से इन ग्रन्थों में विवेचन उपस्थित किया गया है--सर गुरुदास बनर्जी, हिन्दू लॉ आवमैरेज एवं स्त्रीधन' (पांचवां संस्करण, १६२३, पृ० ३१६-५१६; डॉ० जॉली, टैगोर लो लेक्चर्स, एडाप्शन, इनहेरिटेंस ऐंड पार्टीशन (१८८३) पृ० २२६-२७० ।
६. वृत्तिराबध्यं वा स्त्रीधनम् । परद्विसहस्रा स्थाप्या वृत्तिः । आबध्यानियमः । अर्थशास्त्र (३।२); पितमातृपतिभ्रातृजातिभिः स्त्रीधनं स्त्रिय। यथाशक्त्या द्विसहस्राद दातव्यं स्थावरावृते ॥ कात्या० (स्मृतिच० २, पृ. २८१; परा० मा० ३, पृ० ५४८; व्य० म०, पृ० १५४; दायमाग ४१।१०; बालम्भट्टी, व्य० म०, पृ० १५४।
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