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________________ अध्याय ३० स्त्रीधन स्त्रीधन के विषय में मत-मतान्तर है। वैदिक साहित्य में भी इसकी ओर संकेत मिलता है। ऋग्वेद के विवाहसम्बन्धी दो मन्त्रों(१०१८५।१३ एवं ३८) में वधू के साथ वर के घर के लिए निम्न उपहार भेजने का वर्णन आया है-- सूर्या की वधू-भेट (जिसे सविता ने भेजा था), पशु (जो अवा अर्थात् मघा में हत होते हैं)......आदि ।' सायण ने 'वहतुः' को 'गायों' एवं अन्य पदार्थों के, जो विवाहित होनेवाली कन्या को प्रसन्न करने के लिए दिये जाते हैं, अर्थ में लिया है, किन्तु लैन्मन (हारवर्ड ओरियण्टल सीरीज, जिल्द ८, पृ० ७५३) ने इसे 'विवाहरथ' के अर्थ में लिया है। किन्तु सायण का अर्थ संदर्भ में ठीक उतरता है । और देखिये तै० सं० (६।२।१।१)।२ मनु (६११) ने 'पारिणह्य' (घरेलू सामग्री) का प्रयोग किया है और कहा है कि पत्नी को अन्य बातों के साथ पारिणह्य पर भी ध्यान रखना चाहिये । शबर के मत से जैमिनि (६।१।१६) ने तैतिरोय संहिता के उपर्युक्त कथन द्वारा व्यक्त किया है कि स्त्रियों के पास अपनी सम्पत्ति होती है । मेधातिथि (मनु ८।४१६) ने तै० सं० के संदर्भ में यह कहा है कि मनु का यह कथन कि 'पत्नी जो कुछ अजित करती है, पति का हो जाता है', यदि शाब्दिक अर्थ में लिया जाय तो श्रुति-वाक्य झूठा पड़ जायगा; वास्तव में मनु का इतना ही कहना है कि यद्यपि स्त्रियाँ स्वामिनी हो सकती हैं, किन्तु स्वतन्त्र रूप से धन का व्यय नहीं कर सकती। इन प्राचीन उक्तियों से प्रकट होता है कि प्रारम्भिक काल में जो वस्तुएँ या सम्पत्ति स्त्रियों के पास होती थी, वह विवाह-काल को भेंट थो (यथा आभूषण एवं वहुमूल्य परिधान) और थीं वे वस्तुएं जो दिन-प्रति-दिन के घरेलू काम में आती थीं और उन पर स्त्रियों का नियन्त्रण था। आगे चलकर स्त्रियों की कुछ वस्तुओं के विषय में पश्चात्कालीन स्मृतियों ने नियमानुसार व्यवस्थाएँ दे दी और उन पर स्त्रियों का एक प्रकार का अधिकार घोषित हो गया । इस आरम्भिक स्थिति का परिचय हमें प्रारम्भिक सूत्रों में मिलता है। 'आपस्तम्बधर्मसूत्र' (२।६।१४।६) ने अपने कुछ पूर्ववर्ती लेखकों का मत दिया है (जिसे वह स्वयं स्वीकार नहीं करता और न अनुमोदन करता है) कि आभूषण पत्नी का होता है और वह सम्पत्ति भी उसकी है जिसे वह आने सम्बन्धियों (पिता, भाई आदि) से पाती है । बौधायन १. सूर्याया वहतुः प्रागात्सविता यमवासजत् । अघासु हन्यन्ते गावोऽर्जुन्योः पर्युहते ॥तुभ्यमने पर्यवहन् सूर्या बहतुना सह। पुनः पतिभ्यो जायां वा अग्ने प्रजया सह ।। ऋग्वेद (१०८।१३ एवं ३८) । ये मन्त्र अथर्ववेद में भी हैं, यथा--(१४।१।१३ एवं १४।२।१)। २. पल्यन्वारभते पत्नी हि पारीणह्मस्पेशे । तै० सं० (६।२।१।१) । यह उक्ति आतिथ्येष्टि के संसर्ग में कही गयी है। ३. असति वा स्त्रीणां स्वाम्ये पल्यवानुगमनं क्रियते पत्नी व पारिणह्यस्येशे इत्यादि श्रुतयो निरालम्बनाः स्युः । अत्रोच्यते। पारतन्त्र्याभिधानमेतत् । असत्यां भत्रनुज्ञायां न स्त्रीभिः स्वातव्ये ग यत्र विद्धनं विनियोक्तव्यम् । मेधातिथि (मनु ८।४१६) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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