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________________ ६३६ धर्मशास्त्र का इतिहास इस व्याख्या में २।१३६ के अन्तिम पाद का 'असंसृष्टी' शब्द दो सम्बन्धों में पढ़ा जाना चाहिये--एक बार प्रथम पद्य के 'अन्योदय' के साथ और दूसरी बार दूसरे पद्य के 'संसृष्ट' के साथ। यह अन्तिम शब्द ('संसृष्ट') दो अर्थों में लिया जाना चाहिये ; (१) सहोदर भाई (पूर्व के 'असंसृष्ट' के साथ) एवं पुनःसंयुक्त ('अन्यमातृजः') के साथ। इसके अतिरिक्त मिताक्षरा के मत से हमें 'एक' को 'अन्यमातृज' के पश्चात समझना चाहिये। 'अपरार्क' (पृ.० ७४८) ने भी इसे भिन्न ढंग से ही पढ़ा है और उसकी, विश्वरूप एवं श्रीकर मिश्र (दायभाग ११।५-१६) ने व्याख्या की है कि असंसृष्ट सगा भाई धन पा जाता है और संसृष्ट सौतेला भाई नहीं। इसी प्रकार व्य० मयूख' ने भी अपना भिन्न मत दिया है और 'मिताक्षरा' से अपनी भिन्नता प्रकट की है। 'दायभाग' (व्य० प्र०, पृ० ५३३) ने याज्ञ० (२।१३८-१३६) को पुत्रहीन व्यक्ति की पृथक् सम्पति के उत्तराधिकार के समर्थक रूप में माना है और उसकी पुनःसंयुक्त सम्पत्ति के विषय की व्याख्या बहुत कम है । व्य० प्र० (पृ० ५३३) ने इसकी ओर संकेत किया है और कहा है कि जीमूतवाहन इस विषय में गड़बड़ कर गये हैं। अपरार्क (पृ० ७४८-७४६) ने सम्भवतः 'दायभाग' की ही बात कही है। व्य० प्र० ने मिताक्षरा का अनुसरण किया है और श्रीकर, स्मतिच० आदि की आलोचना की है (पृ० ५३५-५३८)।४३ इसका कथन है कि शंख, नारद आदि के वचनों से याज्ञ० (२।१३५) के वचन कट-से जाते हैं।४४ ___ 'व्यवहारप्रकाश' के अनुसार मृत पुनःसंयुक्त व्यक्ति के उत्तराधिकारियों का क्रम यों है ।--(१---३) पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र; (४) संसृष्ट सगा भाई; (५) संसृष्ट सौतेला भाई एवं पृथक् सगा भाई; (६) संसृष्ट माता; (७) संसृष्ट पिता; (८) कोई अन्य संसृष्ट सदस्य; (६) असंसृष्ट सौतेला भाई; (१०) असंसष्ट माता; (११) असंसृष्ट पिता; (१२) विधवा पत्नी; (१३) पुत्री; (१४) दौहित्र; (१५) बहिन । व्य० म० द्वारा प्रस्तुत क्रम यों है--(१) संसृष्ट; (२) असंसृष्ट पुत्र, यद्यपि पुत्र के अतिरिक्त अन्य संसृष्ट सदस्य रह सकते हैं; (३) संसष्ट माता-पिता, अन्य संसृष्ट व्यक्तिओं के रहते हुए भी; (४) संसृष्ट सगा भाई; (५) असंसृष्ट सगा भाई एवं संसृष्ट सौतेला भाई; (६) संसृष्ट सौतेला भाई एवं चाचा; (७) अन्य संसृष्ट सदस्य (इन्हें संसृष्ट पत्नी से वरीयता मिली है); (८) संसृष्ट पत्नी; (६) सगी बहिन (या अन्य पाठ से पुत्री४५); (१०) कोई अन्य सन्निकटतम सपिण्ड। यह अवलोकनीय है कि मनु (६।२१२) ने संसृष्ट सहभागियों के उत्तराधिकार के विषय में एक विचित्र नियम दिया है, यथा--मृत सं सृष्ट सहभागी के (असंसृष्ट) सगे भाई एवं सगी बहिन संसृष्ट सौतेले भाइयों के साथ मृत के धन में बराबर-बराबर भाग पाते है । इस कयन को कुल्लूक, 'आरार्क' (पृ० ७४६), स्मतिच० (२, पृ० ३०४-३०५), नीलकंठ, विवादचन्द्र (पृ०८३) आदि ने विभिन्न ढंगों से व्याख्यात किया है। आजकल न्यायालयों में संसृष्टि-सम्बन्धी विवाद बहुत ही कम आते हैं । ४३. एतेन पल्ल्याद्यपुत्रधनग्रहणाधिकारिगणे भ्राधिकाराबसरे वचनमिदं प्रवर्तते इति व्याचक्षाणो जीमतवाहनो भ्रान्त एवेत्यवसेयम् । व्य० प्र० (५३३)। ४४. ततश्च पत्नी दुहित्रादिक्रमविरोधादविरोधायैतत् संसृष्टभागविषयमिति कल्प्यते। विभक्तोक्सनैयायिकपत्नीदहित्रादिक्रमोऽत्र वाचनिकक्रमेण बाध्यते। अस्मिन क्रमे कस्य चिन्यायस्यामावाद्वावनिक एवायं क्रमः । व्यः प्र० (पृ० ५३६) ४५. या तस्य भगिनी सातु ततोंशं लब्धुमर्हति । अनपत्यस्य धर्मोयमभार्यापितृकस्य च ॥ बृह० (व्य० म० पृ० १५२ एवं व्य० प्र० पृ० ५३६) । व्य० म० का कथन है--केचितु या तस्य दृहितेति पेठः। दुहितृभगिन्योरभावेऽनन्तरः सपिण्डः । ऐसे ही शब्दों के लिए देखिये पराशरमाधवीय (३, पृ० ५४१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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