________________
६३५
पुनः संयुक्त होनेवालों के उत्तराधिकार यद्यपि स्पष्ट समझौता नहीं सिद्ध हो सकता। कौन-कौन पुनः संयुक्त हो सकते हैं, इसके विषय में कई मत प्रकाशित किये गये हैं। 'मिताक्षरा' 'दायभाग' एवं 'स्मृतिचन्द्रिका' ने बृहस्पति के कथन की व्याख्या करते हुए कहा है कि कोई सदस्य,जो संयुक्त परिवार से एक बार पृथक् हो गया, केवल अपने पिता,भाई या चाचा के साथ पुनःसंयुक्त हो सकता है, किन्तु अन्य सम्बन्धी, यथा चचेरे भाई या पितामह के साथ नहीं। किन्तु विवादचिन्तामणि' (पृ० १५७), 'व्य० मयूख' (पृ० १४६) एवं व्य० प्रकाश (पृ० ५३३)ने व्यवस्था दी है कि बृहस्पति का कथन केवल उदाहरणात्मक है, कोई व्यक्ति किसी भी सदस्य से, जो विभाजन में सदस्य के रूप में था, पुनः संयुक्त हो सकता है । पुनःसंयुक्त व्यक्ति को सृष्ट या संसष्टी कहा जाता है। संसृष्टि (पुनःसंयुक्ता) के विषय का एक प्राचीन इतिहास है । गौतम (२८।२६) ने एक सामान्य नियम दिया है कि किसी पुनःसंयुक्त (संसृष्ट) सहभागी की मृत्यु पर बचा हुआ संसृष्ट सदस्य उसका भाग पाता है। कौटिल्य (३१५) ने कहा है कि वे लोग, जो साथ रहते हैं, भले ही उनके पास पैतृक सम्पत्ति न रही हो, या जो पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के उपरान्त भी साथ रहते हैं, पुनःसंयुक्त धन का विभाजन समान भाग में कर सकते हैं। यही बात मनु (६।२१० = विष्णुधर्मसूत्र १८।४१) ने भी कही है।
___ याज्ञ० (२।१३५-१३६) में आया है कि पुत्रहीन व्यक्ति के मृत होने पर पत्नी एवं अन्य उत्तराधिकार पाते हैं । यह एक नियम है। इसी से 'मिताक्षरा' ने याज्ञ० (२।१३८-१३६) के वचन को, जो पुनःसंयुक्त व्यक्ति के मृत होने के उपरान्त उत्तराधिकार के विषय में है, अपवाद माना है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जब कोई व्यक्ति अपने भाई से फिर मिल जाता है और ऐसे पत्र को छोड़कर मर जाता है जो स्वयं उससे नहीं मिला है तो उसकी सम्पत्ति को उसका पुत्र पाता है न कि उसका भाई जो उससे पुनःसंयुक्त था। किन्तु यदि क अपने ख एवं ग पुत्रों से अलग हो जाता है, जिनमें ख आगे चलकर उससे पुनःसंयुक्त हो जाता है और ग नहीं, तो क के मरने के उपरान्त उसका पुनःसंयुक्त पत्र ख उसकी सम्पत्ति पाता है और ग को कुछ नहीं मिलता । यह बात 'विवादचन्द्रिका' (१०८५) ने स्पष्ट रूप से कही है और 'स्मृतिसार' का ह्वाला दिया है।४१ याज्ञवल्क्य (२।१३८-१३६) के दो श्लोक टीकाकारों द्वारा कई प्रकार से उदधृत एवं व्याख्यापित हैं। हम इस विषय में अधिक नहीं लिखेंगे । 'मिताक्षरा' के अनुसार दोनों श्लोकों४२ का अर्थ यों है--'मृत संसृष्ट व्यक्ति के विषय में बचे हुए संसृष्ट सदस्य को चाहिये कि वह (पहले की मृत्यु के) पश्चात् उत्पन्न पत्र (पितृमरणोत्तरक) को (मृत व्यक्ति का) धन दे दे, किन्तु यदि पुत्र न हो (केवल पत्नी हो) तो वह स्वयं ले ले; किन्तु संसृष्ट (पुनःसंयुक्त) भाइयों में सगे भाई को, यदि वह पुनःसंयुक्त (संसृष्ट) हो, चाहिये कि वह मृत के पश्चात् उत्पन्न पुत्र को (मत का) भाग दे दे, और (यदि पूत्र न हो) तो वह सौतेले भाइयों के रहते हुए भी, स्वयं धन ले ले; संसृष्ट सौतेला भाई संसृष्ट एवं पुत्रहीन भाई का धन लेता है, किन्तु वह सौतेला भाई जो संसृष्ट नहीं है धन नहीं पाता; सगा भाई, भले ही वह संसृष्ट न हो संसृष्ट सौतेले भाई के साथ धन पाता है, किन्तु सौतेला भाई अकेले नहीं पा सकता।"
४१. यस्तु पिता पुत्रणव केनचित्संसृष्टस्तस्यांशं संसृष्ट एव गृह्णीयान्नासंसृष्टी, संसृष्टिनस्तु सं सृष्ट इति वचनात् । .. .अतएव स्मृतिसारे यदा पितेव केनचित्पुत्रणव संपृष्टस्तदा तद्धन संसृष्टिपुत्रो गृह्णीयानाससृष्टी विभक्तपुत्रः, ससष्टिनस्तु ससृष्टीत्यविशेषेणाभिधानादित्युक्तम् ।
४२. ससृष्टिनस्तु संसृष्टी सोदरस्य तु सोदरः । दद्यादपहरेच्चांशं जातस्य च मृतस्य च ॥ अन्योदर्यस्तु ससृष्टी नान्योदर्यो धनं हरेत् । असंसृष्ट्यपि वा दद्यात्संसृष्टो नान्यमातृजः ॥ याज्ञ० (२।१३८-१३६) । पहला श्लोक विष्णु (१७११७) में भी है । अपरार्क (पृ० ७४७) ने 'नान्योदर्यधन हरेत्' एवं 'आदद्यात्सोदर्यो नान्यमातृकः' पढ़ा है। विश्वरूप, जितेन्द्रिय एव विवादचन्द्र (पृ० ८४) ने 'चादद्यात्सोरो नान्यमातृजः' पढ़ा है।
www.jainelibrary.org
Jain Education International
Jain Education International
For Private & Personal Use Only