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धर्मशास्त्र का इतिहास
( आरम्भ से लेकर सहपाठी तक के अभाव में) राजा को मिल जाता है । कात्यायन (मिता०, याज्ञ० २।१३५; पृ० मा० ३, पृ० ५३५, व्य० म० पृ० १३६ ) के मत से उत्तराधिकारियों के अभाव में राजा धन ले लेता है, किन्तु उसे मृत की रखेलों, नौकरों, अन्त्येष्टि-क्रिया एवं श्राद्ध के लिए प्रबन्ध करना पड़ता है ( कात्यायन ६३१ ) | आजकल नारद एवं कात्यायन के वचनों को उस विषय में मान्यता दी गयी है जहाँ उत्तराधिकारियों के रहते मृत व्यक्ति की रखेलों की जीवन-वृत्ति का प्रश्न है ।
याज्ञवल्क्य ( २।१३७) ने एक विशिष्ट नियम प्रतिपादित किया है, जो उत्तराधिकार सम्बन्धी सामान्य नियम ( २।१३५- १३६ ) का अपवाद है -- 'उन उत्तराधिकारियों का, जो वानप्रस्थ, यति ( संन्यासी), ब्रह्मचारी (नैष्ठिक ब्रह्मचारी, जो जीवन भर वेदाध्ययन करता रहता है) का धन लेते हैं, अनुक्रम यों है; (वैदिक) गुरु या आचार्य, सच्छिष्य ( अच्छा या गुणवान शिष्य), धर्म भ्राता जो एकतीर्थी ( जो भाई के समान एवं उसी सम्प्रदाय का हो) होता है । ४० मिताक्षरा ने इस क्रम में कुछ परिवर्तन कर दिया है, उसके अनुसार आचार्य ( जो तीन उत्तराधिकारियों में प्रथम स्थान पाता है) उक्त क्रम में उल्लिखित अन्तिम व्यक्ति का उत्तराधिकारी है, अतः मिताक्षरा के अनुसार आचार्य, अच्छा शिष्य एवं धर्म भ्राता ( भाई के समान माना जानेवाला व्यक्ति) क्रम से ब्रह्मचारी, यति एवं वानप्रस्थ के उत्तराधिकारी होते हैं। मिताक्षरा ने इस प्रकार प्रतिलोम क्रम लगा दिया है । 'दायभाग' ने भी क्रम में परिवर्तन कर दिया है, किन्तु उसके अनुसार वानप्रस्थ, यति एवं ब्रह्मवारी का धन क्रम से धर्म पाई, सत् शिष्य एवं आचार्य लेते हैं, किन्तु इनके अभाव में आश्रय में रहनेवाला ( जहाँ पर मृत व्यक्ति रहता था) कोई भी धन ले सकता है। 'मदनरत्न'
के अनुसार क्रम सीधा ही है, अर्थात् आचार्य, सच्छिष्य एवं धर्मभ्राता, वानप्रस्थ, यति एवं ब्रह्मचारी का धन लेते हैं, क्योंकि विष्णु ० (१७१५-१६) ने ऐसा ही कहा है। 'मिताक्षरा' के अनुसार ब्रह्मचारी दो प्रकार के होते हैं; नैष्ठिक एवं उपकुर्वाण ( जो कुछ अवधि तक शिष्य रहकर पूर्वजों की शाखा को चलाने के लिए विवाह कर लेता है ) । 'मिताक्षरा' ने याज्ञवल्क्य के ब्रह्मचारी शब्द को नैष्ठिक ब्रह्मचारी के अर्थ में लिया है, क्योंकि उपक ु र्वाणि ब्रह्मचारी यदि कोई सम्पत्ति छोड़ता है तो वह उसकी माता, पिता एवं अन्य उतराधिकारियों को प्राप्त होती है । 'मिताक्षरा' ने इसी प्रकार कहा है कि दुष्ट स्वभाव वाले एवं अगुणी शिष्य तथा आचार्य को धन नहीं प्राप्त होता । 'मिताक्षरा' ने वानप्रस्थ को एक दिन, एक मास या छः मास या वर्ष भर के लिए धन एकत्र करने की आज्ञा याज्ञ० (३१४७) द्वारा व्यवस्थित मानी है, अतः उसके मरने पर कुछ धन बच जा सकता है । यद्यपि गौतम ( ३।१० ) ने सन्यासियों के लिए धन-संग्रह वर्जित माना है, किन्तु उनके पास परिधान, खड़ाऊं, योग आदि सम्बन्धी पुस्तकें रह सकती है। यही बात नैष्ठिक ब्रह्मचारियों के लिए भी लागू है (इस विषय में तथा मठों की स्थापना, शासन एवं सन्यासियों और उनके शिष्यों आदि के विषय में देखिये इस ग्रन्थ का भाग २, अध्याय २६ एवं अध्याय २८ ) ।
संसृष्टि -- पुनर्मिलन या पुनःसंयोग या संसृष्टि केवल उन्हीं लोगों में सम्भव है जो मौलिक विभाजन में सहभागी थे । अतः इसके तीन स्तर हो सकते हैं-- ( १ ) संयुक्त परिवार, ( २ ) संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच विभाजन एवं (३) व्यक्त या अव्यक्त रूप से पुनः उन लोगों के संयुक्त हो जाने की अभिलाषा एवं समझौता, जो विभाजन में पृथक्-पृथक् सदस्य थे । 'स्मृतिचन्द्रिका' (२, पृ० ३०२ ) एवं 'विवादचन्द्र' ( पृ० ८२ ) के मत से सदस्य भाग के अनुसार पृथक् हों किन्तु साथ-साथ रहें तो व्यवहार की दृष्टि में उनका यह सहवास पुनः संयोग नहीं कहलाता । विवाद - चन्द्र ने 'विष्णुपुराण' को उद्धृत कर कहा है कि किसी आचरण-गति से पुनःसंयोग की झलक मिल सकती है,
४०. वानप्रस्थयति ब्रह्मचारिणां रिक्थभागिनः । क्रमेणाचार्य सच्छिष्यधर्म भ्रात्रे कतीर्थिनः । याज्ञ० (२।१३७ ) ।
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