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________________ समानोदकों, बन्धुओं आदि का उत्तराधिकार ६३३ आदि के मत से (किन्तु दायभाग के मत से नहीं) समानोदकों (या सोदकों) के अभाव में बन्धु लोग उत्तराधिकार पाते हैं। ऊपर के विवेचनों से यह प्रकट हो गया होगा कि गोत्रज लोग, चाहे वे सपिण्ड हों या समानोदक हों, सगोत्र होते हैं (कुछ बातों में उनकी पत्नियाँ भी वैसी मानी गयी हैं) अर्थात् वे ऐसे व्यक्ति हैं जो मृत से अटूट पुरुषवंश के सम्बन्ध से जुड़े होते हैं । बन्धु ऐसे व्यक्ति होते हैं जो मृत व्यक्ति से एक या कई स्त्रियों के द्वारा सम्बन्धित होते हैं । बन्धुओं के उत्तराधिकार के विषय में तीन श्लोक हैं जो वृद्ध -शातातप या बौधायन के माने जाते हैं उनका अनुवाद यों है--"अपने पिता की बहिन के पुत्र (फुफेरे भाई),अपनी माता की बहिन के पुत्र (मौसी के पुत्र ) एवं अपने मामा के पुत्र आत्मबन्धु कहे जाते हैं, अपने पिता के पिता की बहिन के पुत्र, अपने पिता की माता की बहिन के पूत्र एवं अपने पिता के मामा के पुत्र तबन्ध कहलाते हैं; अपनी माता के पिता की बहिन के पुत्र, अपनी माता की माता के पुत्र एवं अपनी माता के मामा के पुत मातृ-बन्धु कहलाते हैं।"'मिताक्षरा' ने इस वचन के आधार पर कहा है कि बन्धु की तीन कोटियाँ हैं ; आत्मबन्धु, पितृबन्धु एवं मातबन्धु । आत्मबन्धु, पितृबन्धु के पूर्व तथा पितृबन्धु मातृबंधु के पूर्व उत्तराधिकार पाते हैं ( मिता० याज्ञ० २।१३६) एवं 'मदनपरिजात' पृ० ६७४) । बन्धुओं के अधिकारों के विषय में मिताक्षरा एवं अन्य टीकाओं तथा निबंधों ने बहुत कम लिखा है अ आधुनिक काल में न्यायालय सम्बन्धी निर्णयों में बहुत मतभेद रहा है। हम इस चक्कर में यहाँ नहीं पड़ेंगे। उतराधिकारी के रूप में अन्य जन-मिताक्षरा के मत से बंधुओं के अभाव में मृत का उत्तराधिकारी उसका गुरु (वेद गुरु) होता है, गुरु के अभाव में शिष्य (आपस्तम्ब० २।६।१४।३ पर आधारित) तथा शिष्य के अभाव में सब्रह्मचारी (गुरुभाई, जो मृत व्यक्ति के साथ एक ही गुरु से पढ़ता था तथा जिसका उपनयन संस्कार एक ही गुरु द्वारा कराया गया था)को उत्तराधिकार मिलता है। सब्रह्मचारी के अभाव में ब्राह्मण का धन श्रोत्रिय (वेदज्ञ ब्राह्मण) को मिलता है, जैसी कि गौतम (२८/३६) ने व्यवस्था दी है। श्रोत्रिय के अभाव में उसी ग्राम के किसी ब्राह्मण को धन मिलता है, जैसा कि मन (६/१८०-१८६)का कहना है; सभी प्रकार के उत्तराधिकारियों के अभाव में तीनों वेदों का ज्ञाता, शद्ध एवं आत्मनिग्रही ब्राह्मण धन लेता है। इससे धर्म की हानि नहीं होती है। नियम ऐसा है कि ब्राह्मण का धन राजा को नहीं लेना चाहिये।'' यही बात नारद (दायभाग, ५१-५२) ने भी कही है। इसी अर्थ में 'विष्णुधर्मसूत्र' (१७। १३-१४), 'बौधायनधर्मसूत्र' (१।५।१२०-१२२), शंख-लिखित, देवल (व्य०र० पृ० ५६७ एवं व्य० चि०पृ० १५५) ने भी अपनी बातें कहीं हैं । किन्तु आधुनिक काल में ये निर्देश सम्मानित नहीं हुए हैं । मनु (६।१८६) एवं बृहस्पति (अपरार्क पृ० ७४६, वि० र० ५६८)ने कहा है कि क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों का धन उत्तराधिकारियों के अभाव में हरदत्त ने सगोत्र सम्बन्धी के अर्थ में लिया है । मनु (३।३१) में 'ज्ञाति' पितृ-सम्बन्धियों के अर्थ में आया है-- 'ज्ञातिभ्यो द्रविण दत्वा ।' मनु (३।२६४ एवं ४।१७६) तथा याज्ञ० (२११४६) में 'जाति' का अर्थ 'बान्धव' या 'बन्धु' से भिन्न कहा गया है और उसका अर्थ है 'सगोत्र' । 'सजात' एवं 'सनाभि' शब्दों के विषय में भी जानना आवश्यक है । 'सजात' शब्द तैत्तिरीय संहिता(१।६।१०।१ एवं १।६।२।१) में आया है (उग्रोहं सजातेषु भूयासम्) यह शब्द अथर्ववेद (१६।३, ३।८।३ एवं ६।५।२) में सगोत्र या सम्बन्धी के अर्थ में आया है। 'सनाभि'शब्द ऋग्वेद (३८६४) में आया है, इसका अर्थ 'ज्ञाति' है. जो आपस्तम्बगृह्यसूत्र (७।२०।१८), मनु (५।७२), बृहस्पति के दिये हुए अर्थ के समान ही है। किन्तु निरुक्त (४१२१) एव कात्यायन अपरार्क पृ०६६६-६७०) ने 'सनाभि' को विस्तृत अर्थ में (पिता एवं माता के सम्बन्धियों को सम्मिलित करते हुए ) लिया है । अमरकोश ने सपिण्ड को सनाभि का पर्याय माना है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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