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धर्मशास्त्र का इतिहास
सम्बन्ध तब समाप्त हो जाता है जब ( कुल में) जन्म एवं नाम नहीं ज्ञात हो पाता । ३८ यह बात शौच के अध्याय में कही गयी है । 'मिताक्षरा' ने घोषित किया है कि समानोदकों में सपिण्डों के उपरान्त सात पुरुषों (पीढ़ियों) के पूर्वज आते हैं या वे सभी पुरुष ( सपिण्डों के उपरान्त) आते हैं जिनके जन्म एवं नाम (मृत के कुल में) ज्ञात हैं। इसमे बृहन्मनु को उद्धृत किया ; "सातवे पुरुष के उपरान्त सपिण्ड सम्बन्ध समाप्त हो जाता है, समानोदकों का सम्बन्ध १४वीं पीढ़ी के उपरान्त समाप्त हो जाता है; कुछ लोगों के मत से समानोदक तब तक चलता रहता है जब तक नाम एवं जन्म-कुल की स्मृति बनी रहती है; तब गोव चलता रहता है।" समानोदकों में व्यक्ति के प्रपितामह के पितामह के उपरान्त सात पूर्व- पूर्वज आते हैं--इन सात पूर्वजों के तेरह वंशज, व्यक्ति के अपने पिता के छः पूर्व-पुरुषों के छः वंशजों के उपरान्त सात वंशज तथा स्वयं उसके सातवें से लेकर तेरहवें तक के वंशज ।
'समानोदक' शब्द का शाब्दिक अर्थ है " वे लोग जो किसी एक व्यक्ति को जल देते हैं या उससे जल ग्रहण करते है ।" इस शब्द का प्रयोग वसिष्ठ ( ( १७/७६ ) में हुआ है ।
बन्धु -- हमने ऊपर देख लिया है कि 'दायभाग' ने किस प्रकार बन्धुओं को गोत्रजों के भीतर रख दिया है। मिताक्षरा के मत बन्धु लोग मृत व्यक्ति के सपिण्ड होते हैं, किन्तु वे लोग भिन्न गोत्र के होते हैं। 'मिताक्षरा' मयूख
से
३८. सपिण्डतातु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तते । समानोदकभावस्तु जन्मनाम्नोरवेदने || मनु ( ५६० ) ; यथा बृहन्मनुः । सपिण्ड वर्तते । समानोदकभावस्तु निवतलाचतुर्दशात् । जन्मनाम्नोः स्मृतेरेके तत्परं गोत्रमुच्यते ॥ मिता० ( याज्ञ० २।१३६ ) । व्य० नि० ( पृ० ४५४ ) ने इस श्लोक को बृहस्पति का माना है ।
३६. 'बन्धु' शब्द बहुत प्राचीन है और पूर्व युगों में कई अर्थो में व्यवहृत होता आया है। ऋग्वेद (१।११३।२) में रात्रि एव उषर को 'समानबन्धू' (एक साथ जुड़ी या किसी उभयनिष्ठ सम्बन्ध वाली ) कहा गया है। ऋग्वेद (१/१५४।५ ) में 'मित्र' के अर्थ में 'बन्धु' शब्द आया है, यथा-- उरुक्रमस्य स हि बन्धुरित्या ।' ऋग्वेद (१।१६४।३३) में 'नाभि' एवं 'बन्धु' का प्रयोग एक-दूसरे के पश्चात् हुआ है। मुनि वसिष्ठ ने अश्विनौ ( ऋग्वेद ७।७२।२) से कहा है कि उनकी मित्रता प्राचीन है और उनका सम्बन्ध समान है (युवोहि नः सख्या पित्र्याणि समानो बन्धुरुत तस्य वित्तम् ) । और देखिये ऋग्वेद (५।७३ | ४ ८।२१/४ ८ । १००1६ एवं ६ | १४|३) । अथर्ववेद ( १५1११199) में अथर्वा को देवों का बन्धु एवं वरण को मुनियों का सखा (मित्र) एव बन्धु ( अर्थात् सम्बन्धी ) कहा गया है। और देखिये अथर्ववेद ( ६।५४ ३) एवं (६।५४।३) । वाजसनेयी संहिता ( ४/२२ ) में ऋषि प्रार्थना करता है कि देव हमसे प्रसन्न हों और हममें अपने बन्धु को देखें (अस्मे रमस्वास्मे ते बन्धुः ) । सूत्रों में गौतम (४।३) एव वाराह गृह्य ( ६ ) ने पितृ-बन्धुओं एवं मातृ-बन्धुओं ( पिता एवं माता से सम्बन्धित व्यक्तियों) का उल्लेख किया है। याज्ञवल्क्य ने' बन्धु' एवं 'बान्धव' को तीन अर्थों में व्यवहृत किया है -- सामान्य सम्बन्धी के अर्थ में (१८२, १०८, ११३, ११६ एवं २२०; २।१४४ एवं २८० १ १ एवं २३६ ), सगोत्र के अर्थ में ( २१२६४) एवं सम्बन्धी के अर्थ में ( २।१३५.१४६ एवं २६४ ) | मनु ( ६ । १५८ एव १२ - ७६) ने 'बन्धु' शब्द सामान्य सम्बन्धी के अर्थ में लिया है। आपस्तम्बधर्मसूत्र ( १७/२१ 15 एवं २।५।११।१६ ) एवं गौतम (१४|१८) ने 'योनिसम्बन्ध' शब्द को उन लोगों के लिए प्रयुक्त किया है जो स्त्रियों के द्वारा सम्बन्धित हैं। पाणिनि ( ५।३।२३ ) ने सामान्य अर्थ में, यथा रक्त सम्बन्ध' (चाहे पिता या माता) लिया है तो विद्यायोनिसम्बन्धेभ्यः ।' वेदकाल से 'जाति' शब्द भी चलता आया है, जिसका अर्थ सामान्यतः सगोत्र या सम्बन्धी है । देखिये ऋग्वेद (१०।६६ १४, १०/११७६), और देखिये अथर्ववेद ( ४ | ५ | ६ ) । पाणिनि ( १।१।३५ ) ने सम्भवत: 'ज्ञाति' शब्द सगोत्र के अर्थ में लिया है -- ' स्वमज्ञातिधनाख्यायाम् गौतम (२०४३) एवं आपस्तम्ब धर्मसूत्र ( १1३1१०1३ ) में 'ज्ञाति' माया है जिसे
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